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________________ ४६८ - - - आचारागसूत्रे मूलम्-सेवंता कोहंचमाणंच मायंचलोभं च, एयंपासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्सपलियंतकरस्स,आयाणंसगडब्भि ॥सू०१॥ छाया-स वमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च । एतत् पश्यकस्य दर्शनं उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य, आदानं स्वकृतभित् ॥ मू०१॥ टीका-स-शुभाध्यवसायपूर्वकसंयमाराधनपरायणः श्रमणः, क्रोधं मानं मायां लोभं च वमिता=अपनेता भवति । अत्रैकपदेन क्रोधमानमायालोभानिति वक्तव्ये पृथक् पृथगुपादानमेकैकस्य क्रोधादेरनन्तानुबन्ध्यादिभेदेन चतुर्विधत्वं दर्शयति । तेषामुपशमो युगपन्न संभवति, तस्मादेकैकस्योपशमार्थ पृथक पृथक प्रयत्नो से छूट जाता है। ये सब बातें तीसरे उद्देशकके अन्तिम सूत्रोंमें प्रकट कर दी गई हैं । परन्तु वह छूटता कैसे है ? सो कहते हैं- से वंता' इत्यादि। शुभअध्यवसायपूर्वक संयमकी आराधनामें तत्पर श्रमण-मुनि क्रोध, मान, माया और लोभका वमिता-अपनेता-नाशक होता है। मूत्रमें “क्रोधं मानं मायां लोभ” इस प्रकार इन द्वितीयान्त पदोंका अलग अलग स्वतंत्र प्रयोग किया गया है, उसका कारण क्रोधादिकोंमें एकएकके अनन्तानुबन्धी आदिके भेदसे चार-चार भेदों को दिखाना है। अर्थात्-समास करने पर-"क्रोधमानमायालोभान "-ऐसा एक पद बन जाता है, फिर भी इस एक पदका प्रयोग न कर जो प्रत्येक पद सूत्र में स्वतन्त्र विभक्तिवाले रखे हैं उसका कारण क्रोध आदि, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलनके भेदसे चार २ प्रकारके हैं, यह बतलाना है। तथा इनका उपशम एक साथ एक ही जगह नहीं होता है किन्तु એ સઘળી વાતે ત્રીજા ઉદેશના અંતિમ સૂત્રમાં તથા આ ઉદ્દેશના અન્ય સૂત્રમાં प्रगट ४२वामा मावेस छ. ५२न्तु ते छुट छ वाशते ? ते ४ छ-से वंता त्याहि. શુભ અધ્યવસાયપૂર્વક સંયમની આરાધનામાં તત્પર શ્રમણ-મુનિ ક્રોધ, भान, माया मने सामना भिता-24पनेता-नाश मन छ. सूत्रमा “क्रोध, मान, माया, लोभ" मा प्रारे मा द्वितीयान्त होना माग અલગ સ્વતંત્ર પ્રયોગ કરેલ છે. તેનું કારણ ક્રોધાદિકોમાં એક-એકના અનન્તાનુબંધી माहिना मेथी यार यार लेह मतावाना छे. अर्थात् समास ४२वाथी “ क्रोधमानमायालोभान् ” ये ४ ५४ भने छे. तो ५ २॥ मे पहने। प्रयोग न शने જે પ્રત્યેક પદ સૂત્રમાં સ્વતંત્ર વિભક્તિવાળા રાખેલ છે તેનું કારણ ક્રોધ આદિઅનન્તાનુબંધી, અપ્રત્યાખ્યાન, પ્રત્યાખ્યાનાવરણ અને સંવેલનના ભેદથી ચાર ચાર પ્રકારે છે, તે બતાવવાનું છે. તથા તેને ઉપશમ એક સાથે એક જ જગ્યા ઉપર શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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