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________________ विषय पृष्ठाङ्क २२ पूर्वोक्त मेधावी मुनिको चाहिये कि क्रोधसे लेकर मोह तकके भावशस्त्रों का परित्याग कर क्रोधादिकके फलभूत गर्भदुःखादिसे लेकर निगोददुःखपर्यन्त सभी दुःखोंको दूर करे-यह बात भगवान् तीर्थङ्करने कही है। ४९४-४९५ २३ बारहवें सूत्रका अवतरण और बारहवां सूत्र । ४९५ २४ क्रोधादिको दूर करनेवाला अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंका क्षपण ___ करनेवाला होता है। ४९६ २५ तेरहवें मूत्रका अवतरण और तेरहवां सूत्र । ४९६ २६ पश्यकको, अर्थात्-केवलोको उपाधि, अर्थात्-द्रव्योपाधि भावो पाधि, अथवा-कर्मजनित नरकादिभव होता है क्या?; पश्यकको उपाधि नहीं है । उद्देशसमाप्ति। ४९६-४९९ ॥ इति तृतीयाध्ययनम् ॥ ॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥ ॥ अथ प्रथमोद्देशः॥ १ तृतीय अध्ययनके साथ चतुर्थ अध्ययनका सम्बन्धप्रतिपादन। ५०० २ प्रसङ्गतः सम्यक्त्वका निरूपण । ५०० ३ सम्यक्त्व शब्दकी सिद्धि, सम्यक्त्वका लक्षण, सम्यक्त्वके लक्षणके विषयमें वादियों की विपतिपत्तिका निरसन । ___५००-५११ ४ सम्यक्त्वका द्वैविध्य और दशविधत्वका सविस्तर विवरण । ५१२-५२८ ५ सम्यक्त्वकी स्थिति। ५२९ ६ सम्यक्त्वके प्रादुर्भावकी व्यवस्था । ५२९-५३० ७ सम्यक्त्वका अन्तरकाल । ८ सम्यक्त्वका फल। ५३१-५५९ ९ सम्यक्त्वप्राप्तिका क्रम। ५५९-५७२ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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