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________________ विषय २७ चौदहवें सूत्रका अवतरण और चौदहवां सूत्र । ४६३ २८ रागद्वेष का वशवी जीव क्षणभङ्गुर जीवनके परिवन्दन, मानन और पूजनके लिये प्राणानिपात आदि असत्कर्मों में प्रवृत्ति करते हैं। इस प्रकार वे परिवन्दन, मानन और पूजनके विषय में प्रमादशील हो जाते हैं, प्रमादी हो जन्म जरा मरणरूप दुःखार्णव में अपने को डुबो देते हैं, अथवा-इस प्रकार वे उन परिवन्दनादिकों में आनन्द मानते हैं। परंतु वे परिवन्दनादिक उनके हितके लिये नहीं होते। ४६३-४६४ २९ पन्द्रहवें सूत्रका अवतरण और पन्द्रहवां सूत्र। ४६४-४६५ ३० ज्ञानचारित्रयुक्त मुनि दुःखमात्रासे स्पृष्ट होकर भी व्याकुल नहीं होता । हे शिष्य ! तुम पूर्वोक्त अर्थ अथवा वक्ष्यमाण अर्थ को अच्छी तरह समझो। रागद्वेषरहित मुनि लोकालोक प्रपञ्च से मुक्त हो जाता है। उद्देशसमाप्ति । ४६५-४६६ ॥ इति तृतीयोदेशः॥ * ॥ अथ चतुर्थोद्देशः ।। १ तृतीय उद्देश के साथ चतुर्थ उद्देशका सम्बन्ध प्रतिपादन और प्रथम सूत्र। ४६७-४३८ २ शुभाध्यवसायपूर्वक संयमके आराधनमें तत्पर मुनि क्रोध, मान माया और लोभको दूर करनेवाला होता है; यह बात तीर्थङ्करोंने कही है। तीर्थङ्करों के उपदेशका अनुसरण करनेवाला साधु आदान का-अष्टादश पापस्थानों का, अथवा कषायों का - वमन करनेवाला और स्वकृत कर्मों का नाश करनेवाला होता है। ४६८-४७२ ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र । ४७२-४७३ ४ जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एकको जानता है। ४७४-४७५ ५ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय मूत्र । ४७५ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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