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विषय
पृष्ठाङ्क १५ आठवें सूत्रका अवतरण और पाठवां सूत्र ।
४४९ १६ तत्त्वज्ञानी जीव अतीतकालिक और भविष्यकालिक पदार्थों का
चिन्तन नहीं करते, वे तो वर्तमानकाल के ऊपर ही सावधानता से दृष्टि रखते हैं । इसलिये मुनि विशुद्धाचारी या अतीतानागत कालके संकल्प से रहित हो कर, निरतिचार संयमकी आराधना कर पूर्वोपार्जित सकल काँका क्षपण करे ।
४५०-४५१ १७ नवम सूत्र का अवतरण और नवम सूत्र ।
४५१-४५२ १८ अरति और आनन्दकी असारता का विचार कर, उनके विषय
में विचलित न होता हुआ ध्यान मार्ग में विचरण करे, तथा सभी प्रकार के हास्यों का परित्याग कर आलीनगुप्त होते हुए संयमानुष्ठान में तत्पर रहे।
४५२-४५५ १९ दशम सूत्रका अवतरण और दशम मूत्र ।
४५५ २० पुरुष अपना मित्र अपने ही है। बाहरमें मित्र खोजना व्यर्थ है।४५५-४५७ २१ ग्यारहवें सूत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र ।। ४५७-४५८ २२ जो पुरुष कर्मों के दूर करनेकी इच्छावाला है वह कर्मों को
दूर करनेवाला है और जो कर्मों को दूर करनेवाला है वह कर्मों के दूर करने की इच्छावाला है।
४५८-४५९ २३ बारहवें सूत्रका अवतरण और बारहवां मूत्र ।
४५९-४६० २४ अपनी आत्माको बाह्य पदार्थों से निवृत्त कर, उसे ज्ञानदर्शन
चारित्र से युक्त कर पुरुष दुःखसे मुक्त हो जाता है। ४६०-४६१ २५ तेरहवां सूत्र ।
४६१ २६ सत्यको-अर्थात्-गुरु की साक्षिता से गृहीत श्रुतचारित्र धर्म
सम्बन्धी ग्रहणी और आसेवनी शिक्षा को, अथवा आगमको विस्मृत न करते हुए तदनुसार आचरण करो । सत्यका अनुसरण करनेवाला मेधावी संसार समुद्रका पारगामी होता है और ज्ञानादियुक्त होने से श्रुतचारित्र धर्मको ग्रहण कर वह मुनि मोक्षपददर्शी होता है।
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨