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________________ विषय ४१३ पृष्ठाङ्क ६ अज्ञ मनुष्य मनोविनोद के निमित्त प्राणियोका संहार कर आनंद मानता है । बालों-अज्ञों का संग व्यर्थ है। उनके संग से तो द्वेषकी ही वृद्धि होती है। ४११-४१२ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र । ८ बालों के संगसे द्वेष ही बढता हैं; इस हेतु अतिविद्य - सम्य ज्ञानवान् प्राणी परम की, अर्थात्-सिद्धिगति नामक स्थान की अथवा सर्वविरतिरूप चारित्र की सत्ता को जान कर, नरकनिगोदादिके विविध दुःखोंके ज्ञानसे युक्त हो, पापानुवन्धी कर्म नहीं करता है, न दूसरों से कराता है, न करनेवाले का अनुमोदन ही करता है । वह धीर मुनि, अग्र और मूल का विवेक कर के, कर्मों का छेदन कर निष्कर्मदर्शी हो जाता है। ४१३-४१५ ९ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र । १० यह निष्कर्मदर्शी मरणसे मुक्त हो जाता है, केवली होकर दूसरों को भी मुक्त करता है। इहलोकादि भय को देखनेवाला यही मुनि कहलाता है । मुनि परमदर्शी, विविक्तजीवी और उपशान्त आदि हो कर, पण्डितमरणको आकाङ्क्षा करता हुआ संयमाराधनमें तत्पर रहे। ४१६-४१८ ११ छठा मूत्र । ४१८ १२ पापकर्म बहुत प्रकारके कहे गये हैं, उनको दूर करनेके लिये संयम में धृति धरो । संयमपरायण मेधापी मुनि समस्त पाप कर्मीका क्षपण करता है। ४१८-४१९ १३ सातवा सूत्रका अवतरण और सातवा मूत्र ।। ४१९-४२० १४ अनेक विषयों में आसक्तचित्त संसारी पुरुषों की इच्छाकी पूर्ति नहीं होती। ऐसे पुरुष अन्यवधादिरूप पापकर्मों में ही निरत रहते हैं। ४२०-४२४ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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