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________________ विषय ঘাড় २४ बारहवा सूत्र। ४०३ २५ मुनि कर्मस्वरूपका पर्यालोचन कर सर्वज्ञ-जिन सम्बन्धी उपदेश, या संयमको स्वीकार कर रागद्वेषसे रहित हो वीतराग हो जाते हैं। २६ तेरहवां सूत्र । ४०४ २७ कर्मके कारण रागद्वेषका ज्ञानपूर्वक परित्याग कर, संसारी लोगों को विषयकपायों से व्यामोहित जान कर, तथा विषयामिलापरूप लोकसंज्ञाका वमन कर मतिमान् मुनि संयमाराधनमें तत्पर रहे, संयम ग्रहण कर पश्चात्ताप न करे । उद्देशसमाप्ति । ४०४-४०५ ॥ इति प्रथमोदेशः॥ ॥ अथ द्वितीयोदेशः॥ १ प्रथम उद्देश के साथ द्वितीय उद्देश का सम्बन्धप्रतिपादन, और द्वितीय उद्देशका प्रथम सूत्र । २ प्राणियों के जन्मदृद्धिका विचार करो; सभी प्राणियों को सुखप्रिय होता है और दुःख अप्रिय होता है - इस वस्तु को समझो। इस प्रकार विचार करनेवाला प्राणी अतिविध हो कर -'निर्वाणपद या वहां तक पहुंचानेवाले सम्यग्दर्शन आदि परम हैं' ऐसा जान कर परमार्थदर्शी बनकर सावध कर्म नहीं करता। ४०६-४०९ ३ द्वितीय मूत्र । ४ इस मनुष्यलोकमें बन्धन के कारणभूत मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों को छोड़ो । आरम्भजीवी मनुष्य ऐहिक-पारलौकिक दुःखोंको भोगनेवाले होते हैं । कामभोगों में अभिलाषा रखनेवाले जीव अष्टविध कर्मों का संचय करते रहते हैं और कामभोगादिजन्य कर्मरजसे संश्लिष्ट हो वारंवार गर्भगामी होते हैं। ४१०-४११ ५ तृतीय सूत्र । ४११ ४१० શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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