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विषय
पृष्ठा १२ छठे सूत्रका अवतरण और छठा सूत्र । १३ आत्मकल्याणार्थी मनुष्य आतुर प्राणियों को देखकर, अप्रमत्त
हो, संयमाराधनमें तत्पर रहे-इस प्रकार संयमाराधनमें तत्पर रहने के लिये शिष्यको आज्ञा देना।
३९३ १४ सप्तम सूत्र ।
३९४ १५ 'यह संसारपरिभ्रमणरूप दुःख सावधक्रियाके अनुष्ठानसे होता
है, ऐसा जानकर आत्मकल्याणके लिये अभ्युद्यत रहो' इस प्रकार शिष्यके प्रति कथन । मायी और प्रमादी वारंवार नरकादियातना को प्राप्त करता है। जो पुरुष शब्दादिविषयों में रागद्वेषरहित होता है, माया एवं प्रमाद से दूर रहता है, वारंवार मरणजनित दुःखके आने की आशंकासे भयभीत
रहता है। वह श्रुतचारित्र धर्ममें जागरूक हो मरणसे छूट जाता है।३९४-३९५ १६ अष्टम सूत्र।
३९५ १७ संसारी जीवोंके दुःखों के जाननेवाले, कामभोगजनित प्रमादौसे
रहित, पाप कर्मों से निवृत्त वीर पुरुष आत्माके उद्धार करनेमें
समर्थ होते हैं। १८ नवम सूत्रका अवतरण और नवम सूत्र ।
३९६ १९ जो शब्दादि विषयों में होनेवाला सावध कर्म के ज्ञाता हैं वे
निरवद्य क्रियारूप संयम में होनेवाले दुःखों के सहन की उपयोगिता को भी जाननेवाले हैं, और जो निरवद्यक्रियारूप संयममें दुःखों के सहन की उपयोगिता को जाननेवाले हैं वे
शब्दादिविषयोंमें होनेवाले सावध कर्म के भी ज्ञाता हैं। ३९७-३९९ २० दशम सूत्रका अवतरण और दशम सूत्र ।
३९९ २१ कर्मरहित मुनिको नारकादि व्यवहार नहीं होता है; क्यों कि उपाधिका जनक कर्म है।
३९९-४०१ २२ ग्यारहवें सूत्रका अवतरण और ग्यारहवां सूत्र ।। २३ कर्मको संसारका कारण जानकर कर्मके कारण प्राणातिपातादि का त्याग करे।
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨