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अध्य० २. उ. २
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तदित्थं द्रव्यलिङ्गो नटा इव ते हिंसामृषाऽदत्तादानादिना लोकान् वञ्चयन्ति । पुनस्तल्लाभाय प्रवृत्ता भवन्तीत्याह - ' अनाज्ञये ' -ति ।
अनाज्ञया=भगवदाज्ञाबहिर्भूतया स्वच्छन्दमत्या मुनयः = मुनिवेषधारिणः, शब्दादिकामोपाये प्रत्युपेक्षन्ते प्रवर्तन्ते कामभोगविनिविष्टचित्ता भवन्तीत्यर्थः । अत्र = अस्मिन् कामभोगासक्तिरूपे मोहे, द्रव्यमोहे - मद्यादौ, भावमोहे संसारेऽज्ञाने बिलकुल ही रंजित नहीं होती है । भले ही इनकी प्रवृत्ति से बाह्य जन रंजित नहीं होती है, भले ही इनकी प्रवृत्ति से बाह्यजन रंजित हो जावें, परन्तु इनका आत्मा स्वतः तदनुकूल - प्रवृत्ति से शून्य होने से बिलकुल भी रंजित नहीं हो पाता है; हिंसा, झूठ, चोरी आदि आस्रवों में ही इनका अन्तरङ्ग लालसायुक्त बना रहता है । इसीसे ये लोकों को उगते रहते हैं। ऐसी प्रवृत्ति इनकी क्यों होती है ? इस का कारण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-' अनाज्ञया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते महाव्रतों को धारण करने का ढोंग ये लोग इसी लिये करते हैं कि ये भगवदाज्ञा से बहिर्भूतं हैं । भगवान की आज्ञा ग्रहण किये हुए महाव्रतों को अन्तरग की सच्ची लगन के साथ पालने की है। पांच आस्रवों का नवकोटि से त्याग किये विना उनका शुद्ध पालन नहीं हो सकता है। जो इस प्रकार की आज्ञा से बहिर्भूत हैं और "जो हम कहते हैं वह सत्य एवं शुद्ध है " इस प्रकार की स्वच्छन्द्र प्रवृत्तिशाली हैं वे मुनि वेषधारी साधु शब्दादिक पांच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्त रहते हैं । " अत्र मोहे पुनः पुनः संज्ञा नो हव्याय नो पाराय" मोह दो प्रकार का है- एक द्रव्यमोह
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પશુ રજિત થતા નથી, હિંસા, જુઠ, ચારી, આદિ આશ્રવામાં જ તેની અંતરંગ લાલસા બની રહે છે જેથી તે લેાકેાને ઠગતા રહે છે. એવી પ્રવૃત્તિ તેની કેમ થાય છે તેનુ કારણ બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે—
'अनाज्ञया मुनयः प्रत्युपेक्षन्ते ' महाव्रताने धारण खान! ढोंग ते बो એ માટે કરે છે કે-તે ભગવજ્ઞાથી હિદ્ભૂત છે. ભગવાનની આજ્ઞા ગ્રહણ કરેલા મહાવ્રતાને અતરંગની સાચી લાગણીથી પાળવાની છે. પાંચ આશ્રવેાના નવ કેટિથી ત્યાગ કર્યા વિના તેનુ પાલન થતું નથી. જે આ પ્રકારની આજ્ઞાથી અહિભૂત છે અને “ જે અમે કહીએ છીએ તે સત્ય અને શુદ્ધ છે” આ પ્રકારની સ્વચ્છંદ પ્રવૃત્તિશાલી છે તે મુનિવેષધારી સાધુ શબ્દાદિક પાંચ इन्द्रियोना विषयोभां प्रवृत्त रहे छे. ' अत्र मोहे पुनः पुनः सन्ना नो हव्याय नो पाराय' માહુ એ પ્રકારનો છે-એક દ્રવ્યમાહુ અને બીજો ભાવમોહ. મદ્યાર્દિક દ્રવ્યમાહ
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨