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१०. (कोई भी व्यक्ति आत्म-) विवेक को शीघ्र प्राप्त नहीं कर सकता
है इसलिए समुद्यत होकर कामनाओं को त्यागते हुए, लोक को सम-भाव से सम्यक्तया जान-समझ कर आत्म-रक्षक महर्षि (मोक्षार्थी) प्रमाद-रहित होकर विचरण करे ।
११. मोह-गुणों (रागादि-विकारों) पर बार बार विजय प्राप्त करते
रहने वाले विचरण-शील श्रमण को अनेक प्रकार के 'स्पर्श' (शब्दादि-विषय) प्रतिकूल रूप में स्पृष्ट/पीड़ित करते हैं (किन्तु) भिक्षु उन (प्रतिकूल इन्द्रिय-विषयों) के प्रति मन से (भी) द्वेष न रखे।
१२. 'मन्द स्पर्श' (ज्ञानी के उत्साह को मन्द/शिथिल करने वाले
विषय, अथवा स्त्री-स्पर्श आदि) बहुत लुभावने होते हैं, (किन्तु साधक) वैसे स्पर्शों (शब्दादि-विषयों) में मन न लगाए । (साधक) क्रोध (से स्वयं) को बचाये, मान को दूर करे, माया का सेवन न करे तथा लोभ को छोड़े।
१३. जो पर-प्रवादी (अन्यतीर्थिक) लोग संस्कार-हीन हैं, तुच्छ हैं, वे
राग व द्वेष से युक्त हैं, परतन्त्र (पर-पदार्थों में वशीभूत) हैं, वे अधर्मी हैं-इस प्रकार समझता हुआ, जब तक शरीर नष्ट न हो, (प्रशस्त) गुणों की आकांक्षा करता रहे । -ऐसा मैं कहता हूँ।
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अध्ययन-४
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