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५. इस लोक में या पर-लोक में, प्रमाद-यूक्त (व्यक्ति) धन से (स्वयं
की) रक्षा नहीं कर पाता है। (जैसे) दीपक बुझ गया हो (तब, अन्धकार में कोई व्यक्ति मार्ग को नहीं देख पाता) उसी तरह, अनन्त मोह (रूप अन्धकार) की स्थिति में न्याय-संगत (या दुःख क्षय व संसार-सागर को पार करने वाले) मार्ग को देख कर भी
नहीं देख पाता है। ६. (मोह-निद्रा में) सोए हुए लोगों में भी आशुप्रज्ञ (प्रत्युत्पन्न मति)
व पण्डित (साधक धर्माचरण-हेतु) जागता हुआ जीए। (प्रमादयुक्त आचरण पर) विश्वास (अर्थात् भरोसा) न करे। मुहूर्त अर्थात् 'काल' घोर (निर्दय) है, और शरीर दुर्बल है, (इसलिए) भारण्ड
पक्षी की तरह प्रमाद रहित होकर विचरण करे। ७. (साधक) पग-पग पर (सम्भावित दोषों के प्रति) आशंकित होते
हुए, तथा जो कुछ भी (प्रमाद या गृहस्थ आदि से संसर्ग आदि) हो, उसे 'पाश' (बन्धन) समझते हुए चले । नवीन गुणों के लाभ होने तक जीवन को संवर्धित/पोषित कर, और फिर (उक्त लाभ न आने की स्थिति में) परिज्ञान'-पूर्वक (अर्थात् देह की निरर्थकता निश्चित कर, उसे त्यागने की समझ के साथ) 'मल' (कर्म-मल या शरीर) को विनष्ट/समाप्त करने वाला बने । जैसे प्रशिक्षित व कवच-धारी घोड़े (के लिए युद्ध-स्थल को सुरक्षित पार कर पाना सरल होता है, उस) की तरह, स्वच्छन्दता पर नियन्त्रण करने के कारण (साधक भी) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। (साधना के) प्रारम्भ के वर्षों में प्रमाद-रहित होकर विचरण
करे। ऐसा करने से मुनि शीघ्र 'मोक्ष' प्राप्त करता है। ६. ("भले ही) वह पूर्व जीवन (जीवन के पूर्व भाग) में (अप्रमादता
को) प्राप्त न किया हो, बाद में, (अप्रमादता को प्राप्त कर लेगा") ऐसी उपमा (धारणा) शाश्वतवादियों की (हो सकती) है (क्योंकि वे स्वयं को अज्ञानवश अजर-अमर समझते हैं)। (पूर्व जीवन में प्रमत्त रह चुका साधक) आयु के शिथिल होने पर, और (जबकि) 'काल' शरीर-नाश की स्थिति ला देता है, तब (वह) विषाद को
प्राप्त करता है। अध्ययन-४
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