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श्रमण
संयम
न वि मुंडिएण समणो।
-२५/३१ सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता। समयाए समणो होई।
-२५/३२ समता से श्रमण होता है।
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं। -३१/२ असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए। इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं। -१६/४५ जो व्यक्ति संसार की पिपासा-तृष्णा से रहित है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। कंखे गुणे जाव सरीरभेओ।
-४/१३ जब तक जीवन है सद्गुणों की आराधना करनी चाहिए।
सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं। -१३/१० मनुष्य के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं। अप्पणा सच्चमेसेज्जा
-६/२ अपनी आत्मा के द्वारा, स्वयं की प्रज्ञा से सत्य का अनुसंधान करो।
सत्कर्म
सत्य
आहच्च चंडालियं कटू, न निण्हविज्ज कयाइवि।
-१/११ यदि साधक कभी कोई चाण्डालिक-दुष्कर्म कर ले, तो फिर उसे छिपाने की चेष्टा न करे।
कडं कडे त्ति भासेज्जा,
अकडं नो कडे त्ति य। बिना किसी छिपाव या दुराव के किये हुए कर्म को किया हुआ कहिये, तथा नहीं किये हुए कर्म को न किया हुआ कहिये। कम्मसच्चा हु पाणिणो।
-७/२० प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं।
-१/११
στο
उत्तराध्ययन सूत्र