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नाम 'असंस्कृत' रखा गया। प्रसंगवश, इसकी पहली गाथा का पहला शब्द भी यही है-असंस्कृत। नामकरण का एक आधार यह भी है।
प्रमाद-ग्रस्त जीवन असंस्कृत जीवन है। प्रमाद व्यक्ति की कुप्रवृत्ति होने के साथ-साथ कुदृष्टि या मिथ्या-दृष्टि भी है। भ्रान्त धारणाओं का समूह भी है। भगवान् महावीर के युग में अनेक भ्रान्त धारणायें प्रचलित थीं। माना जाता था कि मंत्र-तंत्र या देव पूजा आदि से टूटते हुए जीवन को जोड़ा जा सकता है। कर्म-फलों से बचा जा सकता है। धर्माराधन के लिये केवल वृद्धावस्था उपयुक्त है। इसी प्रकार की अन्य अनेक मिथ्या मान्यताओं का अंधकार प्रभु के ज्ञान से दूर हुआ। उन्होंने फरमाया कि मंत्र-तंत्र, देव-पूजा आदि से नहीं अपितु संयमी जीवन से टूटते जीवन को जोड़ना संभव है। कर्मों के फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। जिन अपनों के लिये व्यक्ति दुष्कर्म करता है, वे कर्म-फल भोगने में हिस्सा नहीं बांटते। सबके जीवन में वृद्धावस्था का आना अनिवार्य नहीं है। उस समय संयम में पराक्रम करने के लिये अपेक्षित शक्ति शरीर में नहीं रहती। वस्तुतः धर्माराधना की कोई निश्चित उम्र नहीं है। निश्चित है तो केवल यही कि मृत्यु न जाने कब आकर दबोच ले। इसलिये क्षण-मात्र को भी प्रमाद न करो। सभी पाप-कर्मों से बचाने वाला विवेक अचानक प्रकट नहीं होता। उसके लिये सजग प्रयास करना होता है। उसे अर्जित करना पड़ता है। सम्यक् श्रम से ही शरीर व आत्मा का भेद-विज्ञान अनुभव करने की शक्ति प्राप्त होती है। विवेक प्राप्त होता है।
विवेक सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न होने का मार्ग है। इस पर अग्रसर होने वाले साधक को कोई भय नहीं सताता। राग-द्वेष नहीं घेरते। कषाय प्रताड़ित नहीं करते। मिथ्या मान्यतायें प्रभावित नहीं करतीं। उसके लिये मनुष्य-जन्म दुर्गति का नहीं, सुगति का द्वार बन जाता है। शरीर विषय-भोगों का कूड़ाघर नहीं, संयम-साधना का मन्दिर या साधन बन जाता है। उसकी आत्मा की संसार-यात्रा छोटी से छोटी होने लगती है।
इसके लिये आवश्यक है-जीवन को सुसंस्कृत करना। प्रमाद से बचने तथा अप्रमाद को धारण करने की कला की तरह जीना। जीने के लिये आवश्यक है-कला को जानना। यह कला सिखाने के साथ-साथ भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-४