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________________ अध्ययन परिचय तेरह गाथाओं से प्रस्तुत अध्ययन निर्मित हुआ है। इसका केन्द्रीय विषय है-प्रमाद-अप्रमाद। इन दोनों में विवेक द्वारा अन्तर समझ कर भव्य जीव अपने जीवन को प्रमाद-मुक्त एवम् अप्रमाद-युक्त बनाता है। कर्म-मल से रहित होने का यही मार्ग है। नियुक्ति के अनुसार इस अध्ययन का नाम इसीलिये प्रमादाप्रमाद' है। प्रमाद सतत निद्रा है और अप्रमाद सतत जागरूकता। प्रमाद असंयम है और अप्रमाद संयम। प्रमाद आत्म-गुणों की सुप्तावस्था है और अप्रमाद उन की जाग्रतावस्था। प्रमाद आत्मा को कर्म-बन्धनों में जकड़ने की प्रक्रिया है और अप्रमाद आत्मा को कर्म-मुक्त करने की। प्रमाद अधर्म है और अप्रमाद धर्म। शरीर का जीवन नश्वर है। किसी भी समय मृत्यु उसे लील सकती है। आयुष्य कर्म की अवधि पूर्ण होने पर किसी भी तरह उसका जीवित रहना संभव नहीं। जीवन का धागा टूट जाने पर न धन से जुड़ता है, न ऐश्वर्य से, न बंधु-बांधवों से, न औषधि से और न ही किसी दैवी-कृपा से। मृत्यु आने पर जाना ही होता है। इसलिये मनष्य-जीवन का एक-एक क्षण अमल्य है। इस सत्य का एक ही सन्देश है-क्षण-मात्र के लिये भी प्रमाद न करो। जीवन का धागा टूट जाने पर नहीं जुड़ता। एक बार जीवन यदि प्रमाद से ग्रस्त हो जाये तो आसानी से वह अप्रमाद की ओर नहीं मुड़ता। अप्रमाद आत्मा का जीवन है। प्रमाद-ग्रस्त होने का अर्थ है-आत्मा के जीवन से विमुख होना। सच्चे जीवन से आत्मा का सम्बन्ध जोड़ने वाले धागे को तोड़ देना। एक बार टूट जाने पर यह धागा भी सहजता से नहीं जुड़ता। इस सत्य का भी एक ही सन्देश है-क्षण-मात्र के लिये भी प्रमाद न करो। प्रस्तुत अध्ययन में अप्रमादी या आत्मा के जीवन की प्रमाद से सतत सुरक्षा का भी प्रतिपादन किया गया है। संस्कृत का अर्थ होता है-जुड़ने योग्य। संवारे जाने योग्य। प्रमाद-ग्रस्त जीवन जुड़ने योग्य नहीं होता। टूटन या आत्मा के अहित की दिशा में वह प्रायः बढ़ता ही चला जाता है। ऐसे में व्यक्ति का शरीर भले ही जीवित रहे परन्तु वास्तव में वह जीवित नहीं रहता। सच्चे जीवन से उसका सम्बन्ध टूट जाता है। टूट जाने पर यह सम्बन्ध पुनः जुड़ना कठिन हो जाता है। जुड़ने योग्य न रह जाने से ऐसे जीवन को असंस्कृत कहा गया है। ऐसे जीवन से यहां साधक को सचेत किया गया है। इसलिये इस अध्ययन का EO उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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