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________________ २६५. कन्दर्प (काम-प्रधान चर्चा व कौत्कुच्य (हास्य-जनक कुचेष्टाएं) करता हुआ, तथा (अपने) 'शील' (निष्फल प्रवृत्ति), स्वभाव, हास्य व विकथाओं से अन्य (लोगों) को विस्मित करता हुआ (साधक) 'कान्दी' भावना (का आचरण) करता है (कर रहा होता है)। २६६. जो (साधक) सुख, (घृतादि) रस व ऐश्वर्य (की प्राप्ति) के उद्देश्य से मन्त्र-प्रयोग (या मन्त्र व तन्त्र का प्रयोग) और भूति-कर्म (भस्म आदि अभिमंत्रित कर प्रदान करने की क्रिया) को करता है, वह 'आभियोगी' भावना (का सेवन) करता है (या कर रहा होता है)। २६७. (जो व्यक्ति) ज्ञान, केवली (सर्वज्ञ), धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं का अवर्णवाद (निन्दा आदि) करने वाला (होता है, वह) मायाचारी 'किल्विषिकी' भावना (का सेवन) करता है (या कर रहा होता है)। २६८. (जो व्यक्ति) क्रोध की परम्परा को निरन्तर बनाये रखते हुए, तथा निमित्त (ज्योतिष आदि) विद्याओं का सेवन (अनुष्ठान आदि) करते हुए (वर्तता है, वह) इन (ही अनुचित) कारणों से 'आसुरी' भावना (का सेवन) करता है (या कर रहा होता है)। २६६. शस्त्र-ग्रहण (शस्त्र प्रयोग आदि से मरना), विष-भक्षण (कर मरना), अग्नि-पात कर मरना, जल में प्रवेश (कर-डूब कर मरना), तथा (साधु) आचार विरुद्ध भाण्ड-उपकरण रखना (-ये सब दुष्कर्म) जन्म-मृत्यु (की परम्परा-संसार) का बन्ध कराने वाले होते हैं। २७०.इस प्रकार, भवसिद्धिक (अर्थात् भव्य जनों) के सम्मत (मान्य) (इन) छत्तीस उत्तराध्ययनों (श्रेष्ठ प्रकरणों) को प्रकट करके, बुद्ध, ज्ञातृवंशीय (भगवान् महावीर) निर्वाण को प्राप्त हुए । -ऐसा मैं कहता हूँ। 00 अध्ययन-३६ ८४७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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