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※ 国米出
दलि
अध्ययन-सार :
आकाश दो प्रकार का है-लोक और अलोक। जहां कुछ भी नहीं है, न जीव है, न अजीव है, वह अलोक है। जीव-अजीव जहां रहते हैं, वह लोक है। सम्यक् प्रकार से यतना-सम्पन्न होने के लिये अनिवार्य है-जीव-अजीव-विभाग का ज्ञान। जीव-अजीव की प्ररूपणा द्रव्य-क्षेत्र- काल-भाव से होती है। अजीव, रूपी व अरूपी, दो प्रकार का है। रूपी के चार व अरूपी के दस भेद हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श व संस्थान की दृष्टि से इनके अनेक रूप हैं। जीव दो प्रकार के हैं- संसारी और सिद्ध। क्षेत्र, काल, लिंग, तीर्थ, गति आदि की दृष्टि से सिद्धों के अनेक प्रकार हैं। वे लोकाग्र में ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी पर स्थित हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैं:- त्रस और स्थावर। पृथ्वी, अप् व वनस्पतिकाय, ये स्थावर के तथा तेजस्, वायु काय और उदार, ये त्रस जीवों के भेद हैं। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-संस्थान की द्रष्टि से इनके अनेक भेद हैं। उदार त्रस जीवों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये चार प्रकार हैं। सभी के अनेक भेद-प्रभेद होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव। मुख्यतः नारकी सात, तिर्यंच व मनुष्य दो तथा देव चार प्रकार के होते हैं। आगे इन के और भी भेद-प्रभेद हैं।
इन सभी को जान कर मुनि संयम में रमण करे। संल्लेखना करे। सुलभ-बोधि बने। परिमित संसारी बने। पांच अशुभ व दुर्गतिकारक भावनायें होती हैं। इनसे सचेत रहे। अपना कल्याण करे। ये छत्तीस श्रेष्ठ अध्ययन उजागर कर सर्वज्ञ भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए।
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उत्तराध्ययन सूत्र