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________________ २५६. (जीवन की अन्तिम बेला में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान सहित या हिंसक (भावों से युक्त)- इस रूप में जो जीव मरण को प्राप्त होते हैं, उन्हें पुनः (पर-भव में) बोधि दुर्लभ होती है। २६०.(किन्तु) सम्यग्दर्शन से अनुरक्त, निदान-रहित या शुक्ल लेश्या में अवगाढ़ (प्रविष्ट) -इस रूप में जो जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उन्हें आगे बोधि सुलभ होती है। २६१.मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान-सहित, कृष्ण लेश्या में प्रविष्ट - इस रूप में जो जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उन्हें पुनः बोधि दुर्लभ होती है। | २६२.(किन्तु) जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं, तथा जिन-वचन को 'भाव' से (आचरित) करते हैं, वे निर्मल (मिथ्यात्व आदि भाव-मल से रहित) व (रागादि रूप) संक्लेश से रहित होकर ‘परीत-संसारी' (अल्प या परिमित संसार-स्थिति वाले) होते हैं । २६३.जो जिन-वचनों को नहीं जान पाए हैं - अनभिज्ञ रहे हैं, वे बेचारे (तो) अनेकों बाल-मरण और अनेकों (ही) अकाम-मरण रूप मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं (और प्राप्त करते रहेंगे)। २६४.(चारित्र-शुद्धि हेतु पापों की आलोचना करनी हो तो) जो (व्यक्ति) अनेक आगमों के ज्ञाता हों, समाधि (चित्त की स्वस्थता) के उत्पादक हों तथा गुण-ग्राही हों, (वे ही) इन कारणों (योग्यता) से आलोचना सुनने के योग्य होते हैं (अर्थात् उक्त गुणों वाले व्यक्ति/गुरु के समक्ष ही आलोचना कर आत्म-शुद्धि करनी चाहिए)। अध्ययन-३६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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