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२४०. सातवें (ग्रैवेयक लोक-अर्थात् उन्नीसवें देवलोक, या तीसरे त्रिक
के प्रथम देव-लोक) में (एकभवीय आयु-) 'स्थिति' उत्कृष्टतः उन्तीस सागरोपम की, तथा जघन्यतः अट्ठाईस सागरोपम की होती है ।
२४१. आठवें (ग्रैवेयक लोक- अर्थात् तीसरे त्रिक के द्वितीय देव-लोक) में (एकभवीय आयु-) ‘स्थिति' उत्कृष्टतः तीस सागरोपम की, तथा जघन्यतः उन्तीस सागरोपम की होती है ।
२४२.नवम् (ग्रैवेयक लोक-अर्थात् तीसरे त्रिक के तीसरे देव-लोक) में (एकभवीय आयु-) 'स्थिति' उत्कृष्टतः इकतीस सागरोपम की, तथा, जघन्यतः तीस सागरोपम की होती है।
२४३.चारों ही 'विजय' आदि (अनुत्तरविमानवासी देवों- विजय, वैजयन्त, जयन्त, और अपराजित) में (एकभवीय आयु-) ‘स्थिति' उत्कृष्टतः तैंतीस सागरोपम की, तथा जघन्यतः इकतीस सागरोपम की होती है ।
२४४.महाविमान ‘सर्वार्थसिद्ध' (छब्बीसवें देव-लोक) में ( आयु‘स्थिति’ अजघन्य-अनुत्कृष्ट होती है) उनमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं रहता, सब की एक-सी समान आयु होती है और तैंतीस सागरोपम- (प्रमाण यह 'स्थिति') होती है ।
२४५.(समस्त) देवों की जो-जो आयु- स्थिति कही गई है, वही उनकी जघन्य या उत्कृष्ट 'काय स्थिति' होती है ।
२४६.देवों का अपने देव-पर्याय से च्युत होकर (और कायों में उत्पन्न होकर, पुनः देव में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है ।
अध्ययन- ३६
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