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१२. ऋजुता (सरलता) से युक्त (प्राणी) को (आत्मिक) शुद्धि (प्राप्त
होती है), और शुद्ध (आत्मा) में 'धर्म' ठहरता है। (स्थिर धर्म वाला आत्मा) घृत से सींची गई अग्नि की तरह (देदिप्यमान होकर) परम निर्वाण को प्राप्त करता है।
१३. 'कर्म' के हेतु-कारण को दूर कर, क्षमा से 'यश' (संयम) को
संचित करो। (ऐसा करने वाला साधक) पार्थिव देह को छोड़ कर ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग या मोक्ष) की ओर प्रस्थान करता है।
१४. विविध प्रकार के 'शील' (की आराधना) के कारण (वे प्राणी)
‘यक्ष'-अर्थात् (विशिष्ट कोटि के) देव होते हैं, और उत्तरोत्तर (क्रमशः) महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की भांति दीप्तिमान् होते हैं, तथा वे (अपनी अतिदीर्घकालिक स्थिति/आयु के कारण कदाचित्) मान लेते हैं कि (उनका स्वर्ग से) पुनः च्यवन नहीं
होने वाला है। १५. (वे) इच्छानुरूप ‘रूप-विक्रिया' करने वाले तथा. दिव्य (काम) भोगों
में (स्वयं) अर्पित हुए रहते हैं, और ऊर्ध्ववर्ती देव-कल्पों में अनेक सैकड़ों 'पूर्व' वर्षों तक (अर्थात् दीर्घ अवधि तक) रहते हैं ।
१६. वहां (वे) यक्ष-देव अपनी स्थिति (आयु) के अनुरूप (काल तक)
निवास कर, आयुष्य के क्षीण होने पर 'च्युत' होते हैं, और मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं, तथा (वहां) 'दशांग' (दस अंगों वाली भोग सामग्री) से सम्पन्न स्थान में उत्पन्न होते हैं।
१७. (जिस स्थान में) (१) क्षेत्र (खेत या खुली भूमि) व वास्तु (घर,
महल आदि), (२) स्वर्ण (सोना-चांदी आदि), (३) पशु, और (४) दास (पोषणीय भृत्य पुरुष तथा पैदल सैनिक वर्ग) - ये चार ‘कामस्कन्ध' (मनोज्ञ पदार्थ समूह) होते हैं, वहां वे उत्पन्न होते हैं।
अध्ययन-३