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Jareena
१५१. चतुरिन्द्रिय जीवों की आयु-स्थिति (एकभवीय जीवन की काल मर्यादा) उत्कृष्टतः छः महीनों की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
१५२. (अपने) उस (चतुरिन्द्रिय) काय को नहीं छोड़ें (और उसी चतुरिन्द्रिय काय में ही निरन्तर उत्पन्न होते रहें) तो चतुरिन्द्रिय जीवों की काय स्थिति उत्कृष्टतः संख्यात काल की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है ।
१५३. (चतुरिन्द्रिय जीवों का) अपने (चतुरिन्द्रिय) काय को छोड़ देने पर, (और अन्य कायों में उत्पन्न होकर पुनः उसी चतुरिन्द्रिय काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है ।
१५४. इन (चतुरिन्द्रिय जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
१५५. (त्रस जीवों में) जो पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं- (१) नैरयिक (नारकी), (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य, और (४) देव ।
१५६. (उन पञ्चेन्द्रियों में) नारकी (जीव) सात (प्रकार की) पृथ्वियों में (उत्पन्न) होते हैं। (इसलिए) सात प्रकार के कहे गये हैं:(१) रत्नप्रभा (के निवासी नारकी), (२) शर्कराप्रभा (के निवासी), (३) बालुकाप्रभा (के निवासी),
अध्ययन- ३६
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