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१४४. इन (त्रीन्द्रिय जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की
दृष्टियों से हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
१४५. (त्रस जीवों में) जो चतुरिन्द्रिय जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे
गये हैं- (१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त। उनके भेद मुझसे सुनो।
१४६. अन्धिका, पोत्तिका, मक्षिका (मक्खी), मशक (मच्छर), भ्रमर,
कीड (टिड्डी आदि), पतंग, ढिंकुण (पिस्सू), और कुंकुण (ये चतुरिन्द्रिय जीव) हैं।
१४७. कुक्कुड, श्रृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू, ढोल, ,गरीटक (झींगुर या
भ्रमरी), विरली, और अक्षिवेधक (ये भी चतुरिन्द्रिय जीव) हैं।
१४८. अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र-पत्रक, चित्तपत्रक, ओहिंजलिया
(उपधिजलक), जलकारी, नीचक और तन्तवकर (ताम्रक, तम्बकायिक) (ये भी चतुरिन्द्रिय जीव) हैं।
१४६. (अन्धिका) इत्यादि (उपर्युक्त) अनेक प्रकार के (जीव) होते हैं।
वे सब (चतुरिन्द्रिय जीव समस्त लोक में नहीं, अपितु) लोक के एकदेश (भाग) में (ही अवस्थित) हैं ।
१५०. (उपर्युक्त चतुरिन्द्रिय जीव), सन्तति (प्रवाह-परम्परा) की दृष्टि
से अनादि और अनन्त हैं (किन्तु एकत्व-वैयक्तिक) 'स्थिति' की दृष्टि से सादि और सान्त (भी) हैं ।
अध्ययन-३६
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