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________________ ६. कर्मों के सम्बन्ध से अत्यन्त मूढ़, दुःखी एवं अत्यधिक वेदना वाले (वे जीव) मनुष्येतर योनियों में विशेषतः/बारंबार मार खाते रहते हैं (अर्थात् त्रस्त होते रहते हैं। ७. कदाचित् काल-क्रम से, (विशेष क्लिष्ट) कर्मों के क्षय हो जाने पर, जीव (आत्मिक) शुद्धि प्राप्त कर पाते हैं, (तब कहीं) फिर मनुष्यता (मनुष्य-योनि) को पाते हैं। ८. मनुष्य-देह प्राप्त करने पर भी, धर्म का श्रवण (तो और भी अधिक) दुर्लभ है, जिसे सुनकर (प्राणी) तप, क्षमा और अहिंसा को अंगीकार करते हैं। ६. कदाचित् (संयोग-वश धर्म का) श्रवण प्राप्त करने पर भी, (धर्म पर) श्रद्धा (तो और भी) परम दुर्लभ है, (क्योंकि) बहुत-से लोग न्याय-संगत (या दुःखक्षय व संसार-सागर को पार कराने वाले) मार्ग को सुनकर (भी उससे) परिभ्रष्ट-विचलित हो जाते हैं। १०. (धर्म-सम्बन्धी) श्रवण व श्रद्धा का लाभ होने पर (भी संयम में) पुरुषार्थ व पराक्रम होना (तो और भी) अतिदुर्लभ है, (क्योंकि संयम में) रुचि रखते हुए भी बहुत से लोग उस (संयम) को अंगीकार कर नहीं पाते हैं। ११. मनुष्यत्व (मनुष्य योनि) में आया हुआ जो (प्राणी) धर्म को सुनकर (उस पर) श्रद्धा करता है, (वह) तपस्वी (संयम में) पुरुषार्थ को प्राप्त कर, (कर्म) संवरण से युक्त हो, (कर्म) रज को धुन डालता है-दूर करता है। अध्ययन-३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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