SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 779
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 卐ED pagan आराधक होते हुए भी श्रावक ऐसा नहीं कर पाता। घर-संसार वह पूरी तरह नहीं छोड़ सकता। यह छोड़ना ही मोक्ष-मार्ग पर आगे बढ़ना है। सागार जितना छोड़ता है, उतना ही आगे बढ़ता है। अनगार पूर्णतः छोड़ता है। अत: वह पूरी तरह आगे बढ़ता है। यह पूरी तरह आगे बढ़ना ही उसकी यात्रा का वेग है। गति है। प्रस्तुत अध्ययन वस्तुतः जीवन के सभी सन्दर्भो में अनगार-धर्म का निरूपण है। अनगार की पहचान बनाने वाले लक्षणों की विवेचना है। अनगार की साधना का मार्ग है। यात्रा का आधार है। गन्तव्य का पता है। यात्रा में वेग का निर्धारक है। कठिनाइयों में पराक्रम का प्रस्तावक है। जीवन-यात्रा के लिए दिशा-सूचक-यंत्र हैं। पथ का प्रकाश है। समस्त पंचाश्रवों का सम्पूर्णत: त्याग, महाव्रतों से सम्पन्न व्यवहार, विविक्त शयनासन, गृहासक्ति का तीन करण, तीन योग से त्याग, आहार तैयार करने-कराने का त्याग, परिग्रह का प्रत्येक रूप में त्याग, रसासक्ति का त्याग, सम्मान-प्रतिष्ठा व ऋद्धि-सिद्धि की इच्छा का त्याग और शरीर के प्रति ममत्व का त्याग अनगार का धर्म या मार्ग है। इस मार्ग पर गति सतत जागरूकता से आती है। विवेक को दृढ़तापूर्वक व्यवहार का रूप देने से आती है। निरन्तर यह देखने से आती है कि घर-संसार कहीं बाहर से भीतर तो स्थानान्तरित नहीं हो गया? घर ने कहीं मन में तो घर नहीं बसा लिया? शरीर किसी भी कदम पर साधन से साध्य तो नहीं हो गया? लाभ-अलाभ में समभाव यात्रा में कहीं पीछे तो नहीं छूट गया? अनगार-धर्म का आनन्द कहीं बिछुड़ तो नहीं गया? इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं को देते रहना आवश्यक है। सम्यक् उत्तर ही अनगार-मार्ग पर गति के सूचक हैं। अनगार जीवन के साथ-साथ मृत्यु को भी अपने मार्ग पर गति प्रदान करने वाली शक्ति बना देता है। मृत्यु का सुअवसर के समान स्वागत व उपयोग करता है। इस अवसर पर देहासक्ति-शून्यता की अंतिम परीक्षा भी अभयपूर्वक देकर उत्तीर्ण होता है। धर्म एवं शुक्ल ध्यान में ही स्थित व लीन रह कर अनगार-मार्ग पर आगामी यात्रा हेतु दृढ़ता से अगला कदम उठाता है। परम कल्याण के सभी उपाय उजागर करने के साथ-साथ उन पर दृढ़ आस्था उत्पन्न करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। अध्ययन-३५ ७४६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy