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________________ ५८. प्रथम समय में परिणत हो रही (अर्थात् अपनी उत्पत्ति के प्रथम-तात्कालिक समय में विद्यमान) सभी-लेश्याओं में से किसी भी एक लेश्या) से किसी भी जीव की (मृत्यु व) अन्य भव में उत्पत्ति (कदापि) नहीं हुआ करती। ५६. चरम समय में परिणत हो रही (अर्थात् अपनी समाप्ति के अन्तिम समय में विद्यमान) सभी लेश्याओं (में से किसी भी एक लेश्या) से किसी भी जीव की (मृत्यु व) पर-भव में उत्पत्ति (कदापि) नहीं हुआ करती। ६०. जिसे परिणत (उत्पन्न) हुए (कम से कम) अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो चुका हो, और जिसे (समाप्त होने में भी कम से कम) अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट हो, उसी लेश्या के साथ जीव (मरण, व) परलोक में गमन करता है। ६१. इसलिए, इन लेश्याओं के अनुभागों (शुभ-अशुभ विपाक-फल) को जान कर, (साधक) अप्रशस्त लेश्याओं (के अशुभ भावों) को छोड़कर, प्रशस्त.लेश्याओं (के शुभभावों) को अंगीकार करेउनमें अधिष्ठित/स्थिर हो । -ऐसा मैं कहता हूँ। 00 अध्ययन-३४ ७४५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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