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________________ ४३. “मैंने तप और उपधान (साभिग्रह तप) भी किया है, प्रतिमाओं को भी धारण किया है, इस तरह (साधना-मार्ग में) विहार करते हुए भी मेरी छद्मस्थता (ज्ञानावरणीयः कर्म-आवरण) दूर नहीं हो पा रही है" (-ऐसा मुनि चिन्तन न करे)। ४४. “निश्चय में न तो (कोई) परलोक है, और न ही तपस्वी को ऋद्धियां (प्राप्त) होती हैं” अथवा “मैं तो ठगा गया हूँ"-ऐसा (भी) मुनि चिन्तन न करे । ४५. "जिन' देव हुए थे, 'जिन' (वर्तमान में भी) हैं, अथवा (भविष्य में भी) होंगे-ऐसा वे झूठ (ही) कहते हैं"-ऐसा (भी) मुनि चिन्तन न करे। ४६. इन सभी परीषहों का काश्यप (गोत्रीय भगवान् महावीर) ने (साक्षात्कार कर) निरूपण किया है। (इनमें से) किसी (परीषह) के द्वारा भी कहीं ग्रस्त/आक्रान्त होने पर भिक्षु (इनसे) अभिभूत/पराजित/विचलित न हो। -ऐसा मैं कहता हूँ। 00 अध्ययन २
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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