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अध्ययन-सार :
- भगवान् महावीर ने श्रमण-जीवन में सम्भावित बाईस परीषहों का वर्णन किया है, जिन्हें परास्त कर साधु संयम-मार्ग से विचलित नहीं होता। क्षुधा व पिपासा से पीड़ित साधक दीन-भाव लाये बिना ऐषणीय आहार-पानी ही ग्रहण करे। शीत व ऊष्ण परीषह होने पर मर्यादा-विरुद्ध उष्णता व शीतलता की कभी इच्छा न करे। दंश-मशक परीषह को सम-भाव से सहे। अचेल परीषह की स्थिति में आसक्ति, आकांक्षा, अभिमान, हीन-भाव आदि से मुक्त रहे। संयम के प्रति अरुचि या उदासीनता का भाव आये तो धर्म-ध्यान के बल पर उपशम भावों से उसे जीते। स्त्रियां पुरुषों को तथा पुरुष स्त्रियों को अपने संयम का हनन, आत्म-स्वरूप की गवेषणा में लीन रहते हुए, न करने दें। विहार करते हुए साधक कांटों-कंकड़ों, थकान व प्यास जैसी स्थितियों को चुनौतियां मान कर स्वयं को राग-द्वेष-रहित स्थिति में अजेय बनाये रखे। गृह व परिग्रह बंधनों में आसक्त न हो। एकान्त स्थानों पर साधु किसी को भयभीत न करते हुए देव-मनुष्य-तिर्यंच के उपसर्गों को अडिग भाव से सहे। अनूकूल-प्रतिकूल शय्या व स्थान आदि प्राप्त होने पर हर्ष-शोक न करे। दुवर्चन सुन कर क्रोध न करे। मारे-पीटे जाने पर क्षमा-भाव व धर्म-ध्यान में रमण करे। याचना की स्थिति में दीन-हीन न हो। अपेक्षित वस्तु प्राप्त न हो तो खेद न करे। रोग होने पर समाधि-पूर्वक रहे। सावध चिकित्सा से दूर रहे। तृण-शय्या व सूर्य की प्रचण्ड किरणों की चुभन के जाल में श्रेष्ठ शय्या, वस्त्रादि की इच्छा कर न फंसे। पसीने व मैल के प्रति जुगुप्सा भाव न लाये। अपने.या दसरों के सम्मान या अपमान से अप्रभावित रहे। अधिक ज्ञान से गर्व एवं कम ज्ञान से विषाद या ग्लानि-भाव अनुभव न करे। साधना-फल ज्ञानावरणीय-कर्म-क्षय- रूप में तत्काल न मिलने पर निराश न हो। अपने संयम व जिन-देवों को निरर्थक न समझे। भिक्षु इन सभी परीषहों पर विजय प्राप्त करे।
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उत्तराध्ययन सूत्र