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सुप्तावस्था को जीवन का सत्य बनाता है। यह भ्रम पैदा करता है कि आत्मा की जागृत अवस्था होती ही नहीं। श्रद्धा के आधार को खण्डित करता है। अंधकार का प्रसार करता है। अंतर्नेत्रों को निद्राधीन कर देता है। वेदनीय कर्म अपनी प्रकृति के अनुसार सुखों या दु:खों की सृष्टि करता है। उन्हें अनुभूति के विषय बनाता है। मोहनीय कर्म सम्यक् दर्शन व सम्यक् चारित्र से आत्मा को वंचित कर देता है। मिथ्या दृष्टि व चरित्रहीनता की विपत्तियां सौंपता है। आयुष्य कर्म एक शरीर में आत्मा के रहने की समय-सीमा निर्धारित करता है। नाम कर्म शरीर-रचना को कमजोर या मजबूत बनाता है। पूर्ण या अपूर्ण बनाता है। गोत्र कर्म उच्च या निम्न कुल निर्धारित करता है। सम्मान या अपमान की स्थितियां बनाता है। अन्तराय कर्म अभीष्ट की प्राप्ति में बाधायें उपस्थित करता है। चलते-चलते भी जीव को लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता। बनते-बनते काम बिगाड़ देता है।
ये आठों कर्म-प्रकृतियां आत्मा की विकृतियां हैं। इनके रूप में, यदि भिन्न दृष्टि से देखा जाये तो, आत्मा का अभीष्ट भी स्पष्ट होता है। आत्मा के स्वरूप का संकेत भी मिलता है। ज्ञात होता है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। दर्शन आत्मा का स्वभाव है। सख-द:ख आत्मा के स्वभाव नहीं है। समभाव आत्मा का स्वभाव है। सम्यक् दर्शन व सम्यक् चारित्र आत्मा का स्वभाव है। शरीर आत्मा का स्वभाव नहीं है। शरीर की कमजोरी या मजबूती आत्मा का स्वभाव नहीं है। उच्च-निम्न कुल या सम्मानअपमान आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। शरीर को अभीष्ट की प्राप्ति या अप्राप्ति भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। जो कुछ भी आत्मा का स्वभाव नहीं है, वह आत्मा का अभीष्ट भी नहीं है। उसके लिये जीना भी आत्मा के लिये जीना नहीं है।
कर्म-निषेध का दृष्टिकोण आत्मा का दृष्टिकोण है। संवर और निर्जरा आत्मा का दृष्टिकोण है। कर्म-मुक्त निर्मल अवस्था तक पहुंचने की दृष्टि से सब कुछ देखना और जीना आत्मा का दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण से कर्म-विज्ञान का ज्ञान प्रस्तुत अध्ययन से प्राप्त होता है।
कर्म-विज्ञान को सम्पूर्णत: जानने-समझने तथा आत्मा के हित में सक्रिय होने की प्रबल प्रेरणा देने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
अध्ययन-३३
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