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अध्ययन परिचय
प्रस्तुत अध्ययन में कुल पच्चीस गाथायें हैं। इसका केन्द्रीय विषय है-कर्मों के स्वरूप व प्रकारों का वर्णन। इसीलिये इसका नाम 'कर्म-प्रकृति' रखा गया। कर्म आत्मा को पर-भाव की ओर गतिशील करने वाली शक्ति है। राग-द्वेष और कषायों के कारण कर्म-पुद्गल आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं तथा मन, वचन, काया के योग से आत्मा के साथ इन का बन्ध होता है। तब ये ऐसे एकमेक हो जाते हैं जैसे दूध से पानी और लोहे से अग्नि एकमेक हो जाती है। कर्मों से युक्त होकर आत्मा अपना मूल स्वरूप खो बैठती है। भांति-भांति के शरीर धारण करती है। सुख-दु:ख भोगती है। भटकती है। इस से बचने का एक ही उपाय है-आत्मा का कर्म-मुक्त या निर्मल होना।
कर्म-विज्ञान जैन धर्म का मौलिक विज्ञान है। इस विज्ञान को जान कर ही साधक आत्मा की निर्मल अवस्था की ओर अग्रसर हो सकता है। प्रस्तुत अध्ययन में इस विज्ञान का संक्षिप्त एवम् सारगर्भित वर्णन हुआ है। कर्मों के भेद-प्रभेद तथा कर्म-बन्ध के चार रूप (प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश-बन्ध) इस विज्ञान के आधार हैं। इन आधारों की प्ररूपणा का आधारभूत महत्त्व है। ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया के लिये भी और साधना के लिये भी। __कर्म और जीव के सम्बन्ध अनादि हैं। अनन्त नहीं हैं। मिट्टी और सोने तथा घी और दूध के सम्बन्ध भी अनादि हैं। अनन्त नहीं हैं। विशिष्ट प्रक्रियाओं द्वारा इन्हें अलग किया जा सकता है, किया जाता है। इसी प्रकार कर्मों को भी आत्मा से साधना द्वारा अलग किया जाता है। साधना यह व्यवस्था भी करती है कि भविष्य में कर्म-पुद्गल आत्मा की ओर आकर्षित न हों और यह व्यवस्था भी करती है कि पूर्व-संचित कर्म आत्मा से अलग होते रहें। इस प्रकार आत्मा परम निर्मलता की ओर बढ़ती चली जाये। ___कर्मों के आठों भेद समस्त सुख-दु:खों के मूल कारण हैं। ज्ञान-क्षमता का आवृत्त रहना ही अज्ञान है। अज्ञान से जीवन में अनेक दु:ख आते हैं। अंतत: दु:ख देने वाली मान्यतायें प्रबल होती हैं। मिथ्या सुखाभास में परम सुख का भ्रम होता है। सत्य समझने की शक्ति कुंठित होती है। आत्मा अंधकार की ओर बढ़ती चली जाती है। ज्ञानावरणीय कर्म-बंध इसका कारण है और ज्ञानावरणीय कर्म-क्षय इसका उपाय।
दर्शनावरणीय कर्म देखने की शक्ति पर परदा डालता है। आत्मा की
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उत्तराध्ययन सूत्र