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३७. कर्म-निर्जरा की अपेक्षा रखने वाला (मुनि) अद्वितीय (श्रेष्ठ)
आर्य धर्म (को पाकर, उस) के अनुरूप, जब तक शरीर छूट न जाय, ‘जल्ल' (पसीने आदि के मैल) को शरीर पर धारण किये रहे (और इस परीषह को सहता रहे)।
३८. स्वामी (राजा या शासक वर्ग) आदर से निमन्त्रित करे या
अभिवादन व उठकर सत्कार करे, (तो उस सत्कार की) और जो उन (निमन्त्रणादि) को स्वीकार करें, उन (को देखकर निमन्त्रणादि की) की मुनि स्पृहा (लालसा) न करे ।
३६. अल्प या मन्द कषाय वाला (अहंकार-क्रोधादि से रहित) अल्प
इच्छा वाला (या निरीह, निःस्पृह), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला, तथा लोलुपता-रहित होता हुआ (भिक्षु) सरस वस्तुओं में आसक्त न हो, (दूसरों को सम्मानित होते तथा स्वयं को सम्मान
न मिलते देखकर भिक्षु) पश्चाताप/ अनुताप/खेद न करे। ४०. “निश्चय ही मैंने पहले अज्ञान रूप में फलित होने वाले कर्म
किये हैं, जिनके कारण, कोई किसी विषय में मुझसे (कुछ) पूछता है, तो (जिज्ञासित वस्तु के विषय में) मैं कुछ भी नहीं जानता।"
४१. “अज्ञान रूप फल देने वाले पूर्व-विहित कर्म (ही) (अपने
परिपाक के) अनन्तर (अभी मेरे) उदय में आ रहे हैं"-इस प्रकार कर्म-विपाक (की स्थिति) को जानकर (मुनि) स्वयं को आश्वस्त करे ।
४२. "मैं व्यर्थ ही मैथुन से विरत हुआ, और (इन्द्रियादि का) संवरण
(निरोध भी मैंने) व्यर्थ किया, (क्योंकि) धर्म कल्याणकारी या पापकारी है (अथवा कल्याणकारी धर्म क्या है और पाप क्या है-) इसे मैं प्रत्यक्ष रूप से नहीं जान पाया हूँ" (-मुनि इस प्रकार न सोचे-विचारे)।
अध्ययन २
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