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________________ १०५. (विकार-युक्त होने के) फलस्वरूप ( अस्थिर व तुच्छ लौकिक) सुखों के इच्छुक उस व्यक्ति को मोह-रूपी महासागर में डुबा देने के लिए, (रागादि-जनित हिंसा, विषय-सेवन आदि अनेक) प्रयोजन (निमित्त) उत्पन्न हो जाते हैं (क्योंकि वह विषय-अतृप्ति आदि) दुःखों को (दूर करने के लिए) राग (व द्वेष) से युक्त होकर, उन (विषय-सेवनादि) के निमित्त से उद्यमशील हो जाता है। १०६.शब्द (रूप,रस) आदि जितने भी प्रकार के इन्द्रिय-विषय हैं, वे सभी विरक्ति-युक्त (व्यक्ति) में मनोज्ञता (प्रियता) या अमनोज्ञता (अप्रियता) की उत्पत्ति नहीं करते । १०७. उक्त प्रकार (के चिन्तन) से, अपने संकल्प-विकल्पों (में दोष-बुद्धि रखकर, उन) के विनाश की भावना के साथ उद्यम-शील होने वाले व्यक्ति में समता-भाव उत्पन्न (जागृत) हो जाता है। तदनन्तर, (ये प्रियता-अप्रियता के कारण नहीं हैं- ऐसे शुभ ध्यान के साथ) पदार्थों के (शुद्ध स्वरूप के) विषय में संकल्प करने वाले उस (व्यक्ति) की काम-भोगों में तृष्णा क्षीण हो जाती है। १०८. (तृष्णा-क्षय के अनन्तर, कषायों के क्षय आदि समस्त-मोक्षोपयोगी कृत्यों को कर चुकने के कारण) 'कृतकृत्य' होने वाली वह वीतराग (आत्मा) (क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में पहुंच कर) क्षण-मात्र में 'ज्ञानावरण' (कर्म) को क्षीण-अर्थात् समूल नष्ट कर देता है, साथ ही (उसी क्षण में) उस कर्म को जो 'दर्शन' (गुण) को आवृत करता है, और उस कर्म को भी जो ‘अन्तराय' पैदा करता है, क्षीण कर देता है। १०६. (मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय-इन चार घाती कर्मों के क्षय हो जाने के) फलस्वरूप वह समस्त (पदार्थों व उनके त्रैकालिक पर्यायों) को जानता है, और देखता है। (तब) वह मोह-रहित, अन्तराय-रहित, आसव-रहित व शुद्ध होता हुआ, (शुक्ल) ध्यान व समाधि-से युक्त हो जाता है, और आयु (कर्म) के क्षय होने पर, मोक्ष को प्राप्त करता है। अध्ययन-३२ ६६६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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