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१००. इस(उपर्युक्त) प्रकार से, इन्द्रियों के (रूप, रस आदि) जो विषय,
और मन के जो (प्रशस्त-अप्रशस्त विचार, संकल्प, विकल्प, स्मृति आदि) विषय राग-युक्त (व द्वेष युक्त) मनुष्य के लिए दुःख के कारण हुआ करते हैं, वे ही 'वीतराग' (समभावी) के लिए कदापि एवं कुछ भी, व अल्प मात्रा में भी, दुःख (उत्पन्न) नहीं
करते । १०१. (वस्तुतः) काम-भोग न (तो व्यक्ति में) समता (राग-द्वेष के
उपशम की स्थिति) को प्राप्त कराते हैं, और न (ही) काम-भोग (मनुष्य में कामादि) विकार (की स्थिति) को प्राप्त कराते हैं, (अपितु) जो उनके प्रति द्वेष रखने वाला व परिग्रह (ममत्व) रखने वाला होता है, वह (स्वयं ही) उनमें 'मोह' के कारण
विकार को प्राप्त होता है। १०२. क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा (घृणा), अरति (धर्मानुष्ठान में
अरुचि), रति (विषय-आसक्ति), हास्य, भय, शोक, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद तथा अनेक प्रकार के (हर्ष, दुःख आदि) भावों को.
१०३. इसी प्रकार, ऐसे (क्रोध आदि) अनेक प्रकार के विकारों को, तथा
इन से प्रादुर्भूत होने वाले अन्य विशेष (नरकादि-सन्ताप रूप) परिणामों को वह (अज्ञानी) प्राप्त करता है, जो काम-भोगों में आसक्ति रखता है, तथा (फलस्वरूप वह) करुणा का पात्र, दीन
(हीन), लज्जित एवं (सबके) द्वेष/अप्रीति का पात्र हो जाता है । - १०४. (विरक्त मुनि अपने लिए किसी) सहायक की इच्छा रख कर
(किसी) 'कल्प' (विनीत व स्वाध्यायादि क्रियाओं में समर्थ/सक्षम योग्य शिष्य) की भी इच्छा न रखे। (दीक्षा लेने व संयम-धारण के पश्चात् ) पश्चाताप के भाव से अनुताप करते हुए 'तप' के (सिद्धि, लौकिक-जन-सत्कार आदि) फलों की (भी) इच्छा न करे, (क्योंकि पश्चाताप व तप-फल की इच्छा आदि के कारण, अज्ञानी जीव) इस प्रकार इन्द्रिय रूप चोरों के पराधीन होकर, अपरिमित-प्रकार के विकारों को प्राप्त करता है।
अध्ययन-३२
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