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________________ ४७. (प्रिय या अप्रिय) शब्दों के प्रति विरक्त (व द्वेष-रहित) मनुष्य शोक रहित होता हुआ, संसार के मध्य रहते हुए भी, इस दुःख-समूह की (उत्तरोत्तर) परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं हुआ करता, जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल (में रहता हुआ भी जल) से लिप्त नहीं होता। ४८. गन्ध को घ्राण (इन्द्रिय) का 'ग्राहक'- आकर्षक (ग्राह्य विषय) कहा जाता है। राग के हेतु (उत्पादक) उस गन्ध को तो 'मनोज्ञ' कहा जाता है, और द्वेष के हेतु (उत्पादक) उस (गन्ध) को 'अमनोज्ञ' कहा जाता है। किन्तु उन (मनोज्ञ व अमनोज्ञ-दोनों प्रकार की गन्धों) में जो समभावी रहता है, वह (ही) 'वीतराग' (कहलाता) है। ४६. घ्राण (इन्द्रिय) को गन्ध का ग्राहक कहा जाता है, और गन्ध को (भी) घ्राण (इन्द्रिय) का 'ग्राहक'- आकर्षक (ग्राह्य विषय) कहा जाता है। राग के हेतु (उत्पादक) गन्ध को तो 'मनोज्ञ' कहा जाता है, और द्वेष के हेतु (उत्पादक) गन्ध को ' अमनोज्ञ' कहा जाता है। ५०. जो (जीव प्रिय) गन्ध में तीव्र आसक्ति रखता है, वह उसी प्रकार असामयिक विनाश को प्राप्त होता है जिस प्रकार, (नागदमनी आदि) औषधियों (जड़ी-बूटियों) की (प्रिय) गन्ध के प्रति आसक्त होकर, अपने बिल से निकलने वाला रागातुर सर्प (विनाश को प्राप्त होता है।) (इसी प्रकार,) जो प्राणी (अप्रिय गन्ध के प्रति) तीव्र द्वेष भी करता है, वह तो उसी क्षण, अपने (ही) दुर्दान्त (प्रचण्ड) द्वेष (या दोष) के कारण, 'दुःख' (रूप फल) को प्राप्त करता है। (दुःख पाने वाले) उस (प्राणी) का वह (अप्रिय) गन्ध किंचिन्मात्र भी अपराधी नहीं होता । अध्ययन-३२ ६७५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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