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________________ ४२. (प्रिय) शब्दों (के श्रवण) से अतृप्त होता हुआ (अज्ञानी जीव) उस (शब्द) के परिग्रह में (क्रमशः) आसक्त व अत्यासक्त होता हुआ कभी सन्तुष्टि नहीं प्राप्त कर पाता। असन्तुष्टि दोष के कारण (वह) दुःखी एवं लोभ से व्याकुल होता हुआ (प्रिय शब्द-श्रवण कराने वाली) परकीय अदत्त वस्तु को ग्रहण करने (अर्थात् चुराने) लगता है। ४३. शब्दों (के श्रवण रूप उपभोग) से अतृप्त रहने वाला, तथा उसके परिग्रह करने में तृष्णा के वशीभूत (वह प्राणी) (परकीय वस्तुओं की) चोरी करता है, उसके (उक्त) लोभ-दोष के कारण, माया (कपट) व असत्य (आचरण की प्रवृत्तियों) में वृद्धि होती है। (किन्तु) तब (झूठ व कपट आचरण के बाद) भी, उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल पाती। असत्य (आचरण) के अनन्तर, उससे पूर्व, तथा उसके आचरण के समय भी वह (अज्ञानी) दुःखी होता है, और इसका परिणाम भी दुःखद होता है, इस तरह, (प्रिय) शब्दों से अतृप्त रहने एवं चोरी वाले वाला (वह प्राणी-जीव) दुःखी व निराश्रित/असहाय हो जाता है। ४५. इस प्रकार, (प्रिय) शब्दों के प्रति अनुरक्ति रखने वाले मनुष्य को किंचिन्मात्र भी, एवं किसी समय भी, कहां से सुख (प्राप्त) होगा? जिस (प्रिय शब्द-श्रवण) के लिए (वह इतना) कष्ट उठाता है, उस (मधुर स्वरयुक्त व्यक्ति/वस्तु के प्राप्त होने पर, उस) के उपभोग में भी (उसे) क्लेश व दुःख (ही प्राप्त होता) है। ४६. इसी तरह, (अप्रिय) शब्दों के प्रति द्वेष रखने वाला (जीव भी, उत्तरोत्तर) दुःखों के समूह की परम्परा को प्राप्त करता है। द्वेष से पूर्ण चित्त वाला वह (जीव) जिस-जिस अशुभ कर्म को उपार्जित करता (बांधता) है, वह (कर्म) अपने विपाक (फलोदय) के समय (इस जन्म में या परलोक में) पुनः दुःख-रूप (दुःख का कारण) बन जाता है। अध्ययन-३२ ६७३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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