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३७. जो (जीव प्रिय) शब्दों में तीव्र आसक्ति रखता है, वह उसी प्रकार
असामयिक विनाश को प्राप्त होता है, जिस प्रकार (प्रिय) शब्द (के श्रवण) से अतृप्ति का अनुभव करने वाला और (उस शब्द के प्रति) रागातुर होने वाला मुग्ध (विवेक-शून्य) हरिण (नामक)
पशु मृत्यु को प्राप्त करता है। ३८. (इसी प्रकार) जो प्राणी (अप्रिय शब्दों के प्रति) तीव्र द्वेष भी
करता है, वह तो उसी क्षण, अपने (ही) दुर्दान्त (प्रचण्ड) द्वेष (या दोष) के कारण, 'दुःख' (रूप फल) को प्राप्त करता है। (दुःख पाने वाले) उस (प्राणी) का वह (अप्रिय) शब्द किंचिन्मात्र भी अपराधी नहीं होता।
३६ वह अज्ञानी (हित-अहित-विवेक से शून्य जीव) मनोहर (प्रिय)
शब्दों (के श्रवण) में अत्यन्त अनुरक्त हो जाता है, और जो मनोहर (प्रिय) न हो उस (शब्द) में द्वेष करता है, (फलस्वरूप दोनों ही स्थितियों में वह) दुःखों के समूह (या दुःखमयी पीड़ा) को प्राप्त करता है, (किन्तु) विरक्त मुनि उस (शब्द से, या
रागादि-जनित दुःखद परिणाम) से लिप्त नहीं हुआ करता । ४०. क्लिष्ट (राग से ग्रस्त/बाधित) एवं स्वार्थ को ही महत्व देने वाला
(वह) अज्ञानी (जीव प्रिय) शब्दों (के श्रवण) की आशा में उसका अनुसरण करता हुआ (पीछे भागता हुआ) अनेकविध चर-अचर-(त्रस-स्थावर) प्रणियों की हिंसा करता है, तथा विविध
प्रकारों से उन्हें परिताप देता व कष्ट पहुंचाता है। ४१. (प्रिय) शब्दों के प्रति अनुराग व (ममत्व-रूप) परिग्रह (की वृत्ति)
के कारण (किये जाने वाले, और प्रिय शब्द वाले) पदार्थ का उत्पादन/उपार्जन, संरक्षण एवं सम्यक् उपयोग/उपभोग करते हुए, तथा उसके विनाश व वियोग की स्थिति में उस (प्राणी) को सुख कहां (मिल सकता है)? (उस शब्द का श्रवण रूप) उपभोग करते समय भी- (उस को) तृप्ति नहीं मिल पाती।
अध्ययन-३२
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