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________________ २७. क्लिष्ट (राग से ग्रस्त/बाधित), एवं स्वार्थ को ही महत्व देने वाला, (वह) अज्ञानी (जीव, मनोज्ञ) 'रूप' (की प्राप्ति) की आशा में उसका अनुसरण करता हुआ (पीछे भागता हुआ) अनेकविध चर-अचर (त्रस-स्थावर) प्राणियों की हिंसा करता है, और विविध प्रकारों से उन्हें परिताप देता व पीड़ा पहुंचाता है । (मनोज्ञ) 'रूप' के प्रति अनुराग व (ममत्व रूप) परिग्रह (की वृत्ति) के कारण (किये जाने वाले, और मनोज्ञ रूप वाले पदार्थ का) उत्पादन/उपार्जन, संरक्षण व सम्यक् उपभोग करते हुए, तथा उसके विनाश व वियोग की स्थिति में उस (प्राणी) को सुख कहां (मिल सकता है)? (उस रूप का) उपभोग करते समय भी (उस को) तृप्ति नहीं मिल पाती । २६. (मनोज्ञ) 'रूप' (के उपभोग) से अतृप्त होता हुआ (अज्ञानी जीव) उस (रूप) के परिग्रह में (क्रमशः) आसक्त व अत्यासक्त होता हुआ कभी सन्तुष्टि नहीं प्राप्त कर पाता । असन्तुष्टि-दोष के कारण (वह) दुःखी एवं लोभ से व्याकुल होता हुआ परकीय अदत्त वस्तु को ग्रहण करने (अर्थात् चुराने) लगता है । ३०. 'रूप' (के दर्शन रूप उपयोग) में अतृप्त रहने वाला तथा उसके परिग्रह करने में तृष्णा के वशीभूत (वह प्राणी पर वस्तुओं की) चोरी करता है, उसके (उक्त) लोभ-दोष के कारण माया (कपट) व असत्य (आचरण की प्रवृत्तियों) में वृद्धि होती है । (किन्तु) तब (झूट व कपट आचरण के बाद) भी उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल पाती । ३१. असत्य (आचरण) के अनन्तर, उससे पूर्व, तथा उसके आचरण के समय भी- (वह अज्ञानी) दुःखी होता है, और इसका परिणाम भी दुःखद होता है । इस तरह (मनोज्ञ) रूप से अतृप्त रहने एवं चोरी करने वाला (वह जीव) दुःखी व निराश्रित/असहाय हो जाता है । अध्ययन-३२ ६६७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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