SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 695
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. समाधि (वीतरागता, एकाग्रता) की कामना रखने वाला तपस्वी श्रमण, जो-जो इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय हों, उनमें कभी (राग-) भाव (स्थापित) न करे, और जो अमनोज्ञ विषय हों, उनमें भी मन (को द्वेष-युक्त) न करे । २२. 'रूप' को 'चक्षु' (इन्द्रिय) का 'ग्राहक' आकर्षक (ग्राह्य विषय) कहा जाता है । वह (रूप सुन्दर होने से यदि) राग का हेतु (उत्पादक) हो तो उसे 'मनोज्ञ' कहा जाता है । (किन्तु) जो (रूप असुन्दर होने से) द्वेष का हेतु (उत्पादक) हो, उसे 'अमनोज्ञ' कहा जाता है। उन (मनोज्ञ या अमनोज्ञ-दोनों तरह के रूपों) में जो समभावी रहता है, वह (ही) 'वीतराग' (कहलाता) है । २३. चक्षु को 'रूप' का ग्राहक कहा जाता है और रूप को (भी) चक्षु का 'ग्राहक' (आकर्षक ग्राह्य विषय) कहा जाता है । राग के हेतु (रूप) को ‘मनोज्ञ' कहा जाता है, और द्वेष के हेतु (रूप) को ‘अमनोज्ञ' कहा जाता है । २४. जो (मनोज्ञ) 'रूपों' में तीव्र आसक्ति रखता है, वह (रागातुर) असमय में ही उसी तरह विनाश को प्राप्त करता है, जिस तरह (प्रकाश-रूप के प्रति) रागासक्त पतंगा प्रकाश (दीपशिखा) के प्रति लोलुप होता हुआ मृत्यु को प्राप्त करता है। २५. जो (अमनोज्ञ ‘रूपों' में) तीव्र द्वेष भी करता है, वह (प्राणी) तो उसी क्षण अपने ही दुर्दान्त (प्रचण्ड) द्वेष (या दोष) के कारण 'दुःख' (रूप परिणाम) को प्राप्त करता है। (दुःख पाने वाले) उस (प्राणी) का (वह अमनोज्ञ) 'रूप' कुछ भी (किंचिन्मात्र भी) अपराधी नहीं होता। २६. वह अज्ञानी - (हित-अहित-विवेक.शून्य जीव) सुन्दर 'रूप' (के दर्शन आदि) में (तो) अत्यन्त अनुरक्त हो जाता है, और जो सुन्दर न हो, उस (रूप) में द्वेष करता है, एवं (फलस्वरूप, दोनों ही स्थितियों में वह) दुःखों के समूह या (दुःखमयी पीड़ा) को प्राप्त करता है। (किन्तु) विरक्त मुनि उस (रूप से, या रागादि-जनित दुःखद परिणाम) से लिप्त नहीं हुआ करता। अध्ययन-३२ ६६५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy