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१६. यह सत्य है कि तीन गुप्तियों से सुरक्षित (मुनियों) को
(अलंकारादि से) विभूषित देवांगनाएं (आदि भी साधना से) विचलित/संयम भ्रष्ट नहीं कर सकतीं, तथापि (एकान्तवास को) एकान्त- हितकारी-जान कर (भगवान् द्वारा) मुनियों के लिए एकान्तवास को प्रशंसित किया (अर्थात् प्रशस्त बताया गया
१७. संसार-भीरु, (श्रुत चरित्र रूप) धर्म में स्थिर एवं मोक्ष के इच्छुक
मनुष्य के लिए संसार में ऐसा (कोई अन्य) दुस्तर (वस्तु व कार्य) नहीं है, जैसी कि अज्ञानी जनों के मन को आकृष्ट करने वाली स्त्रियां (तथा उनसे विरक्ति दुस्तर-दुर्जेय होती हैं)।
इन (उपर्युक्त स्त्री - सम्बन्धी) संसर्गों को सम्यकृतया अतिक्रमण कर लेने के बाद (अन्य) अवशिष्ट (द्रव्यादि-संसर्ग जैसे कठिन कार्य) उसी प्रकार सुखपूर्वक उत्तरणीय (पार कर लेने योग्य, सुविजेय) हो जाते हैं, जिस प्रकार, महासागर को पार कर लेने (की क्षमता प्राप्त कर लेने) के अनन्तर, गंगा जैसी-नदियां
(सुखपूर्वक पार करने लायक) हो जाती हैं । १६. समस्त संसार में, देवों तक के भी, जो कुछ भी शारीरिक व
मानसिक दुःख (होते हैं, वे) काम-सम्बन्धी निरन्तर अनुरक्ति से उत्पन्न होते हैं उनके 'अन्त' (विनाश की स्थिति) को 'वीतराग' (आत्मा ही) प्राप्त करता है ।
२०. जिस प्रकार, किम्पाक-फल खाते समय, रस व रूप (एवं गन्ध
आदि) की दृष्टि से मनोरम (प्रतीत) होते हैं: किन्तु परिणाम में 'क्षुद्र' (सोपक्रम) जीवन के लिए 'क्षुद्रक' (विनाशक) होते हैं, काम-भोग (भी) विपाक (परिणाम) में उन्हीं की समानता वाले (होते हुए, संयमी जीवन के विनाशक) होते हैं ।
अध्ययन-३२