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________________ मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, ये प्रमाद के रूप हैं। कर्म-बन्ध के मूल कारण राग, द्वेष, मोह, कषाय हैं। यहां इन सब के बारे में विस्तार से बताया गया है। स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति मिथ्या जीवन-पद्धति को त्याग कर सम्यक् जीवन-पद्धति को अपनाये तो प्रमाद से बच सकता है। मोह को जीत सकता है। राग-द्वेष को समाप्त कर सकता है। कषायों को निर्मूल कर सकता है। मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त कर सकता है। ___ अवांछनीय और वांछनीय जीवन-पद्धति के आधार यहां स्पष्ट रूप से बतलाये गये हैं। खाना-पीना, सोना-जागना, रहना-सहना, आना-जाना, ओढ़नापहनना जैसे जीवन के स्थूल संदर्भो से लेकर विषयासक्ति, दृष्टिकोण, मोह, ध्यान, भाव जैसे सूक्ष्म संदर्भो तक, सभी संदर्भो में प्रमाद और अप्रमाद उत्पन्न करने वाली जीवन-पद्धति के रूप स्पष्टत: यहां उजागर किये गये हैं। साधक के अप्रमत्त अर्थात् मोक्ष-मार्ग की बाधाओं से रहित, होने का मार्ग प्रशस्त किया गया है। सम्यक् ज्ञान का आलोक साधक कैसे प्राप्त कर सकता है? मिथ्यात्व से कैसे बच सकता है? जितेन्द्रिय कैसे हो सकता है? मन को मिथ्यात्व की ओर जाने से कैसे रोक सकता है? राग और द्वेष को निर्मूल करने से उसे क्या प्राप्त होता है? विषयासक्ति उसे कहां ले जा सकती है? उसका क्या बिगाड़ सकती है? कैसे बिगाड़ सकती है? साधनों के प्रति साधक की दृष्टि क्या होनी चाहिये? मोह और तृष्णा में क्या सम्बन्ध है? साधक के लिये रत्न त्रय महत्त्वपूर्ण है या शिष्य सम्पदा? मनोज्ञ शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श में ममत्व रखने से क्या होता है? अमनोज्ञ शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श से घृणा-भाव रखने से क्या होता है? कषायों व अन्य मानसिक विकारों से क्या होता है? अप्रमत्तता से क्या होता है? साधक संसार में कैसे रहे कि सांसारिकता उसे जकड़ न पाये? इन सभी प्रश्नों के उत्तर प्रस्तुत अध्ययन में प्राप्त होते हैं। प्रमाद पूर्ण जीवन-पद्धति के त्याग और अप्रमत्त जीवन-पद्धति के अंगीकार की विवेक-शक्ति और प्रेरणा प्रदान करने के कारण भी इस अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-३२
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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