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अध्ययन परिचय
एक सौ ग्यारह गाथाओं से निर्मित प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-मोक्ष-मार्ग की बाधाओं का अनावरण। समस्त बाधाओं के लिये जैन दर्शन में एक शब्द है-प्रमाद। प्रमाद के स्वरूप एवम् कारणों का विशद वर्णन यहां किया गया है। इसीलिये इसका नाम 'प्रमाद-स्थान' रखा गया। साधक को प्रमाद के सभी कारणों से सावधान करना और बचाना इसका उद्देश्य है।
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प्रमाद का अर्थ है-आत्म- प्रसुप्ति। विवेक रूपी अन्तर्नेत्रों का बन्द हो जाना। प्रमाद वस्तुत: लगभग सभी धर्म-विरोधी प्रवृत्तियों को व्यंजित करता है। इन्द्रिय-विषयासक्ति प्रमाद है। अपने कर्त्तव्यों के प्रति उपेक्षा भाव रखना या उन्हें भूल जाना भी प्रमाद है। अनावश्यक निद्रा भी प्रमाद है। अयतना से कार्य करना भी प्रमाद है। विकथायें करना भी प्रमाद है। मिथ्यात्व भी प्रमाद है। अज्ञान भी प्रमाद है। पापों में तन्मय रहना भी प्रमाद है। मन-वचन-काया का धर्म-सम्मत उपयोग न करना भी प्रमाद है। साधक को साधना व धर्म से विमुख करने वाला प्रत्येक कार्य प्रमाद है।
प्रमाद साधक का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिये कि वही है, जो संसार में उसे भटकता रहता है। वही है जो व्यक्ति को भवसागर के किनारे की कल्पना तक नहीं करने देता। वही है, जो दुःखों और भटकाव को उसकी नियति बना देता है। इस शत्रु को जीतने के लिये इसे पहचानना आवश्यक है। किन कारणों से यह उत्पन्न और विकसित होता है, यह जानना आवश्यक है। वे कारण जीवन में स्थान न बना पायें, इसके लिये उन से सावधान रहना आवश्यक है। प्रमाद से बचने के उपाय जानना और उन उपायों का जीना आवश्यक है। इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रस्तुत अध्ययन से होती है।
दुःख कर्म-बन्ध के परिणाम हैं। अन्तिम रूप से नष्ट वे तभी होते हैं, जब कर्मों से आत्मा को पूर्णतः मुक्ति प्राप्त हो। कर्म-बन्धन होता है-राग और द्वेष से। व्यक्ति, वस्तु और स्थान अपने आप में शुभ या अशुभ नहीं होते। उन्हें शुभ या अशुभ बनाती है वह दृष्टि, जिसके अनुरूप व्यवहार उन से किया जाता है। यह दृष्टि यदि राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि से बनी है तो जीवन प्रमाद से परिपूर्ण हो ही जायेगा। यह दृष्टि यदि वीतरागता से बनी है तो जीवन को धर्म से परिपूर्ण होना ही है। मुख्य साधन नहीं हैं। मुख्य है-उनके प्रति साधक का रवैया या साधक का व्यवहार ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
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