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११. सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादर एर्केद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय. संज्ञी पंचेन्द्रिय
इन सातों के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद से १४ भेद जीवों के होते हैं। १२. परमाधार्मिक देव (नारकी जीवों को मनोविनोद हेतु यातना देने वाले असुर)- इनके पन्द्रह
भेद इस प्रकार हैं- (१) अम्ब, (२) अम्बरीष, (३) श्याम, (४) शवल, (५) रोद्र, (६) उपरोद, (७) काल, (८) महाकाल, (६) असिपत्र, (१०) धनुः (११) कुम्भ, (१२) बालुक, (१३) वैतरणी,
(१४) खरस्वर, (१५) महाघोष । १३. सत्रह प्रकार के असंयम इस प्रकार हैं - (१) पृथ्वीकाय- असंयम (पृथ्वीकायिक जीवों की
कृत कारित- अनुमोदना के साथ हिंसा में प्रवृत्ति) (२) अप्काय-असंयम, (३) वायुकाय-असंयम, (४) तेजस्कायिक-असंयम, (५) वनस्पतिकाय असंयम, (६) द्वीन्द्रिय-असंयम, (७) त्रीन्द्रिय-असंयम, (८) चतुरिन्द्रिय-असंयम, (६) पंचेन्द्रिय-असंयम, (१०) अजीव काय-असंयम (असं यमकारी वस्तुओं का ग्रहण व उपयोग), (११) प्रेक्षा-असंयम (सजीव स्थान में उटना, बैटना, सोना आदि) (१२) उपेक्षा-असंयम (गृहस्थ के पापकर्मों का अनुमोदन), (१३) अपहत्य असंयम (अ-विधि से परटना), (१४) प्रमार्जना-असंयम (वस्त्र-पात्रादि का प्रमार्जन न करना), (१५) मनः असंयम (मन में दुर्भाव रखना), (१६) वचन-असंयम (दुर्वचन बोलना), (१७) काय-असंयम (गमन-आगमन
में संयत-भाव न रखना)। १४. औदारिक शरीर (मनुष्य व तिर्यंच नर-नारी) से सम्बन्धित मैथुन-त्याग रूप 'ब्रह्मचर्य' के (मन,
वचन, व शरीर से, तथा कृत-कारित व अनुमोदना-इन तीन-तीन भेदों के कारण) नी भेट । इसी तरह, वक्रिय शरीर (देव-देवी) से सम्बन्धित ब्रह्मचर्य के भी नौ भेद । दोनों मिल कर
'ब्रह्मचर्य' के अठारह भेद हो जाते हैं। १५. असमाधि-स्थान (जिनसे चिन्त में अशान्ति, अप्रशस्त भावना व अस्वस्थता हो, तथा
मोक्ष-साधना में व्यवधान हो- ऐसे कार्यों) के बीस भेद इस प्रकार है- (द्रुतद्वतचारित्य (उपयोग-रहित, जल्दी जल्दी चलना), (२) अप्रमृज्यचारित्व (रात को बिना प्रमार्जन के चलना)। (३) दुष्प्रमृज्यचारित्व (अविधि से प्रमार्जन करके चलना),() आंतरिक्तशय्याआसनिकत्व (अमर्यादित शय्या व आसन आदि) (4) रात्निक पराभव (दीक्षा-ज्येष्ठ पूज्यों के सम्मुख बोलना, अपमान करना आदि), (६) स्थविरोपघात (स्थविर मुगियों का उपघात, अवहेलना आदि), (७) भूतोपघात (प्राणियों का उपघात करना), (८) संज्वलन (प्रतिक्षण क्रोध करना), (६) दीर्घ कोप (लम्बे समय तक कुपित रहना), (१०) पृष्ठमांसिकत्व (परोक्ष में चुगली-निन्दा करना), (११) अभीक्ष्ण-अवभाषण (संदिग्ध होने पर भी निश्चयकारिणी भाषा का प्रयोग), (१२) नवाधिकरण-करण (नित नया नया कलह करना), (१३) उपशान्तकलह-उदीरण (शान्त क्लेश/कलह को फिर उभारना), (१४) अकाल स्वाध्याय (१५) सरजस्कपाणि-भिक्षाग्रहण (सचित रज से लिप्त हाथ आदि से भिक्षा लेना), (१६) शब्दकरण (प्रहर रात्रि बीते विकाल में जोर-जोर से बोलना), (१७) झंझाकरण (संघविघटनकारी भाषा का प्रयोग), (१८) कलहकरण (आक्रोश आदि रूप कलह करना), (१६) सूर्य प्रमाण भोजित्व
अध्ययन-३१
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