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________________ १६. भिक्षु (को चाहिए कि वह) 'असमान' (गृहस्थ आदि से विलक्षण) होकर विहार करे, परिग्रह तो करे ही नहीं, तथा गृहस्थों के साथ निर्लिप्त रहता हुआ ‘अनिकेत' (अनगारी, गृह-बन्धन से मुक्त) हो विचरण करे। २०. श्मशान में या सूने घर में, या फिर वृक्ष के नीचे मुनि एकाकी (या समभावी) एवं चपलता-रहित होकर (स्वाध्याय व कायोत्सर्ग आदि हेतु) बैठे, और किसी दूसरे को संत्रस्त न करे । २१. उन (उक्त) स्थानों में बैठे हुए उस (मुनि) को (यदि) उपसर्ग हों, (तो वह) उन्हें धारण करे (अर्थात् सहन करे)। (अनिष्ट की) शंका से भयभीत हो, उठ कर (वहां से) अन्य स्थान पर न जाए। २२. तपस्वी व समर्थ भिक्षु ऊंची-नीची (अच्छी-बुरी, विविध) शय्याओं (उपाश्रय-सम्बन्धी सुविधाओं) से समाचारी की नियत बेला का, अथवा समता-रूपी उत्कृष्ट मर्यादा का अतिक्रमण कर, समाचारी व समता-रूपी मर्यादा को नष्ट/भंग न करे । पाप दृष्टि वाला (साधु ही) समाचारी व उक्त मर्यादा को नष्ट/भंग करता है। २३. रिक्त (अर्थात् खाली व एकान्त) उपाश्रय को पाकर, चाहे वह कल्याणकारी (अच्छा, सुन्दर, शान्तिप्रद, मंगलकारी) हो, या पापरूप (बुरा, असुन्दर, अशान्तिप्रद व अमंगलकारी), (मुनि) इस प्रकार सोचकर कि 'यह एक रात क्या (अच्छा-बुरा) करेगी?' वहां रहे (या समभावपूर्वक सुख-दुःख को सहन करे)। २४. (यदि) भिक्षु पर कोई दूसरा आक्रोश करे (तिरस्कार करे व अपशब्द कहे) तो वह उसके प्रति (प्रतिक्रिया-स्वरूप) आक्रोश आदि भाव न रखे। (क्योंकि क्रोधादि के कारण) अज्ञानी-जैसा (व्यक्ति) हो जाता है इसलिए भिक्षु क्रोध-आविष्ट न हो। अध्ययन २ ३७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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