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इकत्तीसवां अध्ययन :
चरण-विधि
१. जीव के लिए सुखकारी उस 'चरण-विधि' (चरित्र-आराधन की
सम्यक् रीति) का निरूपण/कथन, करूँगा जिसे आचरित कर, बहुत से जीवों ने संसार को पार किया है।
२. (चरण-विधि का संक्षिप्त स्वरूप यह है कि साधक) एक ओर
से विरति करे, और (दूसरी ओर) प्रवृत्ति करे। (अर्थात् ) असंयम (हिंसा आदि सावध कार्यों) से निवृत्ति करे, और 'संयम' (सावद्य-विरतिरूप चरित्र) में प्रवृत्ति करे ।
३. पाप-कर्मों के प्रवर्तक (उत्पादक) राग व द्वेष हैं। इन दोनों का
जो भिक्षु सदैव निरोध (नियंत्रण) करता है, वह 'मण्डल' (चतुर्गति-रूप संसार) में ठहरता नहीं है (अर्थात् - 'मुक्त' हो जाता है)।
४. जो भिक्षु (आत्मा को दण्डित-चारित्र से वंचित करने वाली,
मानसिक-कायिक-वाचिक-इन विविध दुष्प्रवृत्ति-रूप) 'दण्डों',(ऋद्धि, रस, साता-सुख-इनमें से प्रत्येक से सम्बन्धित अभिमान-रूप) गौरवों, और (माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन) शल्यों-इनके तीन-तीन प्रकारों का सदा के लिए त्याग कर देता है, वह
मण्डल/संसार में नहीं ठहरता । ५. जो भिक्षु देव, मनुष्य व तिर्यंचों के (द्वारा उत्पादित उपसर्गों को
(और वात-पित्त-कफ की प्रतिकूलता आदि के कारण स्वतः प्राप्त उपसर्गों को भी) (समभाव- पूर्वक) सहन करता रहता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता ।
अध्ययन-३१
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