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(सू.६२) (प्रश्न-) भन्ते! 'चारित्र-सम्पन्नता' (पूर्ण चारित्र की प्राप्ति) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'चारित्र-सम्पन्नता' से (जीव) 'शैलेशीभाव' (मेरुपर्वत की तरह सर्वथा अप्रकम्प - निश्चल- पूर्ण योग-निरोध की स्थिति' या 'शील-चरित्र की पराकाष्ठा') को प्राप्त करता है । शैलेशी-भाव को प्राप्त हुआ अनगार केवली अवस्था में विद्यमान (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चार) कर्म-प्रकृतियों को क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त व निर्वाण-प्राप्त होता है और समस्त दुःखों को विनष्ट (कर, अव्याबाध मोक्ष-सुख को प्राप्त) करता है।
(सू. ६३) (प्रश्न-) भन्ते! 'श्रोत्र इन्द्रिय' (की बहिर्मुखता व स्वविषय में प्रवृत्ति) के 'निग्रह' से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है?
(उत्तर - ) 'श्रोत्र इन्द्रिय के निग्रह' से वह मनोऽनुकूल (प्रिय) व मनःप्रतिकूल (अप्रिय) शब्दों के प्रति राग व द्वेष का निग्रह करता है । उस (श्रोत्रइन्द्रिय के तथा शब्द-सम्बन्धी राग-द्वेष) के निमित्त से होने वाले कर्म का (वह) बन्ध नहीं करता, तथा पूर्व में बंधे हुए (संचित कर्मों) की निर्जरा (क्षय) करता है।
(सू. ६४) (प्रश्न-) भन्ते! 'चक्षु इन्द्रिय की बहिर्मुखता व स्वविषय में प्रवृत्ति के निग्रह' से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है?
(उत्तर-) 'चक्षु इन्द्रिय के निग्रह' से (जीव) मनोऽनुकूल (सुन्दर) व मनःप्रतिकूल (असुन्दर) रूपों के प्रति राग-द्वेष का निग्रह करता है । उस (चक्षु इन्द्रिय के तथा रूप-सम्बन्धी राग-द्वेष) के निमित्त से होने वाले कर्म का बन्ध (वह) नहीं करता और पूर्व में बंधे हुए (संचित कर्मों) की निर्जरा करता है ।
अध्ययन- २६
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