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________________ (उत्तर-) 'सद्भाव-प्रत्याख्यान' से (जीव) 'अनिवृत्ति' (शुक्ल ध्यान की चतुर्थ अवस्था, जहां पहुंच कर पुनः लौटने की संभावना निवृत्त हो जाती है) को प्राप्त होता है। ‘अनिवृत्ति' को प्राप्त हुआ अनगार (मुनि) केवली (सर्वज्ञ) अवस्था में अवशिष्ट रहे चार (अघाती व भवोपग्राही) कर्म-प्रकृतियों - जैसे, वेदनीय, आयु, नाम व गोत्र - का क्षय करता है, उसके पश्चात् (वह) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त व निर्वाण - प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त करता है। (सू.४३) (प्रश्न-) भन्ते! 'प्रतिरूपता' (सुविहित आदर्श भूत जिनकल्पी/स्थविरकल्पी मुनियों जैसे वेष व गुण को धारण करने) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता (उत्तर-) 'प्रतिरूपता' से (जीव कषायों की व उपकरणों की अल्पता होने के कारण) लघुता (भारहीनता) को प्राप्त करता है । लघुता को प्राप्त हुआ जीव प्रमाद-रहित, (स्थविरकल्पी मुनियों के जैसे) प्रकट व प्रशस्त 'लिंग' (चिन्ह) वाला, सम्यक्त्व-विशुद्धि से युक्त, सत्व (धीरता) व समितियों (के पालन) से परिपूर्ण, सभी (द्वीन्द्रिय आदि) प्राणियों, (वनस्पति आदि) भूतों, (पंचेन्द्रिय) जीवों व (पृथ्वी आदि स्थावर) सत्वों के लिए विश्वसनीय रूप वाला, (उपकरणों की अल्पता से) अल्प प्रतिलेखना वाला, इन्द्रियजयी, विपुल (दीर्घ) तपश्चर्या व समितियों से समन्वित (होकर विचरण करने वाला) हो जाता है। (सू.४४) (प्रश्न-) भन्ते! 'वैयावृत्य' (गुणी/पूज्य स्थविर आदि मुनियों की आहारादि द्वारा निःस्वार्थ रूप से यथोचित सेवा करने) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'वैयावृत्य' (रूपी आभ्यन्तर तप) से (जीव) तीर्थंकर नाम गोत्र का बन्ध करता है । (तथा पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा भी करता है।) अध्ययन-२६ ५८५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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