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(उत्तर-) 'सुख-शात' या 'सुखशायिता' से (जीव विषयों के प्रति)
अनुत्सुकता प्राप्त करता है। अनुत्सुकता के कारण जीव (क्रमशः) अनुकम्पा-युक्त, औद्धत्य से रहित (मर्यादावर्ती, प्रशान्त, बाह्य-विभूषा व अभिमान का त्यागी) व शोक (व भय) से रहित होता हुआ, 'चारित्रमोहनीय' कर्म का क्षय करता
(सू.३१) (प्रश्न-) भन्ते! 'अप्रतिबद्धता' (द्रव्य, क्षेत्र काल या भाव के
प्रति अनासक्ति) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध
करता है? (उत्तर-) अप्रतिबद्धता से (जीव) निःसंगता प्राप्त करता है। निःसंगता
से जीव एकाकी (आत्मनिष्ट व रागद्वेष-रहित) एकाग्रचित्त हो जाता है, और दिन-रात (वह सर्वत्र) अनासक्त (बाह्य संसर्गों से रहित) तथा 'अप्रतिबद्ध' (ममत्वहीन, प्रतिबन्ध-रहित)
होकर विचरण करता है। (सू.३२) (प्रश्न-) भन्ते! 'विविक्तशयनासन' (जन-सम्पर्क-शून्य, स्त्री,
पशु-नपुंसकादि संसर्ग से रहित एकान्त स्थान के सेवन/ निवास) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता
(उत्तर-) 'विविक्तशयनासन' (के सेवन से जीव) चारित्र की गुप्ति
(रक्षा) करता है। चारित्र की रक्षा करने वाला जीव विविक्त-आहारी (शुद्ध-सात्विक, विकृति-रहित आहार का सेवन करने वाला, चारित्र की दृढ़ता से सम्पन्न, एकान्त-प्रेमी या संयम में पूर्णतः अनुरक्त) तथा मोक्ष-भाव (मोक्ष-अनुराग व मोक्ष-साधना) में संलग्न होता हुआ, आठ प्रकार की
कर्म-ग्रन्थियों की निर्जरा करता है। (सू.३३) (प्रश्न-) भन्ते! 'विनिवर्तना' (विषयों से पराङ्मुखता) से
जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'विनिवर्तना' से (जीव नवीन) पाप-कर्मों को न करते हुए
(मोक्ष हेतु, या पाप कर्मों को न करने के लिए) समुद्यत होता अध्ययन-२६
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