________________
५. यह पांच प्रकार का ज्ञान सभी द्रव्यों, उनके सभी गुणों तथा
(उनके सभी) पर्यायों का बोधक है। इस पंचविध ज्ञान का उपदेश (केवल-) ज्ञानी (सर्वज्ञ तीर्थंकर) आत्माओं द्वारा किया
गया है। ६. (जो) गुणों का आश्रय (आधार है, वह) 'द्रव्य' होता है, और
'गुण' (वे हैं जो) किसी एक द्रव्य पर आश्रित रहते हैं, पर्यायों का लक्षण है- (द्रव्य व गुण-इन) दोनों के आश्रित होकर रहना ।
७. वरदर्शी (सर्वज्ञ/सम्यग्द्रष्टा) जिनेन्द्रों ने धर्म, अधर्म, आकाश,
काल, पुद्गल व जीव इस (षड्द्रव्यमय) लोक का निरूपण किया
८. धर्म, अधर्म, आकाश (-ये तीनों संख्या में) एक-एक द्रव्य (कहे
गए हैं, तथा) काल, पुद्गल और जीव (ये संख्या की दृष्टि से) अनन्त कहे गए हैं।
६. गति (में हेतु- निमित्त होना यह) 'धर्म' का लक्षण है, स्थिति (में
हेतु-निमित्त होना, यह) 'अधर्म' का लक्षण है। सभी द्रव्यों का भाजन (आधार) “आकाश” है जो 'अवकाश' (देना - इस)
लक्षण वाला है। १०. 'काल' का लक्षण है- 'वर्तना' (परिवर्तन)। जीव का लक्षण
'उपयोग' (चैतन्य - व्यापार) है। ज्ञान, पंचविध, दर्शन, सुख व दुःख से (संयुक्त यह जीव ही होता है, या इनसे जीव की सत्ता
का बोध होता है)। ११. ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप एवं वीर्य व उपयोग (ये भी) 'जीव'
के लक्षण हैं। (ये लक्षण अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाए जाते ।)
अध्ययन-२८
५३७