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२३.
“जो त्रस व स्थावर प्राणियों को संक्षेप से ( एवं विस्तार से ) जानकर (उनकी) त्रिविध रूप (मन, वचन, काया) से हिंसा नहीं करता, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । ”
२४. “जो क्रोध से, अथवा हास्य से, या लोभ से या भय से (या मान व माया से भी), असत्य भाषण नहीं करता, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । "
२५. “जो सचित्त (सजीव) या अचित्त (निर्जीव वस्तु) को, अधिक (किसी के) बिना दिए हुए नहीं ग्रहण करता, हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । "
२६.
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थोड़ा या उसे (ही)
“जो देव, मनुष्य एवं तिर्यंच से सम्बन्धित मैथुन का मन-वचन-काया से सेवन नहीं किया करता, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । "
२७. “जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर (भी) जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो (संसार में रह कर भी) काम-भोगों. से निर्लिप्त रहता है, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । "
२८. “(जो रस आदि में) लोलुप नहीं होता, मुधाजीवी (निर्दोष भिक्षा पर जीने वाला होता) है, अनगार (गृहत्यागी) व अकिंचन (अपरिग्रही) है, तथा गृहस्थों में अनासक्त (अधिक परिचय नहीं बढ़ाने वाला) रहता है, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं ।
"
अध्ययन- २५
२६. “जो पूर्व (गृहस्थ अवस्था में होने वाले) 'संयोगों' को छोड़ कर (पुनः) इन ज्ञाति-जनों व बान्धवों में आसक्त नहीं होता, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं । "
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