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१८. “यज्ञवादी (द्रव्य-यज्ञ के समर्थक ब्राह्मण आदि) अनजान हैं (इस
बात से) कि ब्राह्मणों की सम्पत्ति (तो) विद्या (सज्ञान) हुआ करती है। (सज्ञान-विद्या से युक्त ब्राह्मण ही स्वपर-उद्धारक हो सकते हैं, किन्तु आप ब्राह्मणों की स्थिति यह है कि) स्वाध्याय व तप से ढंके हुए (होने पर भी) उस अग्नि के समान हैं, जो राख से ढंकी होती है। (अर्थात् जैसे राख से ढंकी आग भले ही बाहर से शान्त दिखाई पड़े, अन्दर से अशान्त रहती है, वैसे ही आप ब्राह्मण लोग बाहर से वेद-अध्ययन रूप स्वाध्याय व अज्ञानपूर्ण बाल तप से शान्त प्रतीत हों, किन्तु अन्दर से कषाय-अग्नि के प्रज्वलित होते रहने से अशान्त ही
हैं)।" १६. “जिसे 'ब्राह्मण' कहा जाता है, वह अग्नि की तरह संसार में
सदा पूजनीय होता है, कुशल (तत्वज्ञ) पुरुषों द्वारा (ब्राह्मण रूप में) निर्दिष्ट उस (व्यक्ति) को ही हम 'ब्राह्मण' कहते हैं।"
२०. “जो न तो किसी प्रियमित्र स्वजन आदि के आने पर, आसक्त
होता है और न ही उन के जाने पर शोक किया करता है (अपितु) आर्य (सद्पुरुषों के) वचनों में रमण करता है, उसे
(ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं।" २१. “जो (कसौटी पर) घिसे हुए तथा अग्नि में (तपाकर) निर्मल
(विशुद्ध किए हुए) स्वर्ण की तरह राग, द्वेष, भय (आदि मलों) से रहित है, उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं।"
२२. “(जो) तपस्वी है, (तपश्चर्या के कारण) कृशकाय (एवं) दान्त
(इन्द्रियनिग्रही), मांस व रक्त के अपचय (कमी) वाला, सुव्रती तथा निर्वाण प्राप्त (मोक्ष अभिलाषा वाला या शान्त प्रकृति वाला होता है) उसे (ही) हम 'ब्राह्मण' कहते हैं।"
अध्ययन-२५
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