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________________ १२. “(इसी प्रकार दुःख आदि से) जो स्वयं का तथा अन्य का उद्धार करने में समर्थ होते हैं, उनको (भी) तुम नहीं जानते हो, और यदि जानते हो तो कहो।" १३. उन (जयघोष मुनि) के आक्षेपों (प्रश्नों) के प्रमोक्ष (समाधान) देने में असमर्थ हुआ (विजयघोष) ब्राह्मण, (यज्ञ-संलग्न ब्राह्मणों की) परिषद् के साथ, करबद्ध होकर वहां उन (जयघोष) महामुनि से पूछने लगा १४. “(कृपया आप ही) वेदों के 'मुख' (प्रमुख रूप से प्रतिपाद्य विषय) को बताएं। यज्ञों का जो 'मुख', (प्रवृत्ति का प्रमुख साधक) हो, उसे (भी) बताएं । नक्षत्रों के 'मुख' (प्रधान) को बताएं तथा धर्मों के 'मुख' (उद्गम स्रोत) को भी बताएं ।” | १५. जो “अन्य का तथा स्वयं का उद्धार करने में समर्थ होते हैं (वह भी बताएं)। मुझे ये सभी संशय हैं। हे साधो! आपसे पूछ रहा हूँ, बताएं ।” १६. (जयघोष मुनि बोले-) “अग्निहोत्र (यज्ञ ही) वेदों का मुख रूप (प्रमुख प्रतिपाद्य विषय) है। यज्ञार्थी (होता) यज्ञों का मुख (यज्ञीय प्रवृत्ति में प्रमुख) है। नक्षत्रों का मुख (प्रमुख) चन्द्र है, तथा (सभी) धर्मों के मुख (उद्गम-स्रोत) काश्यप (-ऋषभदेव) १७. “जिस प्रकार मनोहारी ग्रह आदि चन्द्रमा के समक्ष उत्तम रीति से करबद्ध होकर वन्दना-नमस्कार करते हुए स्थित रहते हैं, (उसी प्रकार काश्यप- ऋषभदेव के प्रति मनुजेन्द्र, देवेन्द्र आदि वन्दना-नमस्कार करते हुए स्थित रहते हैं ।)” अध्ययन-२५ ४८१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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