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क्षमता इसमें है। जयघोष-विजयघोष-संवाद वस्तुतः श्रमण व ब्राह्मण संस्कृतियों का संवाद भी है। इस संवाद का बल विजय-पराजय पर न होकर अहिंसा को मानव-धर्म के आधार रूप में स्थापित करने पर है। सत्य को पहचानने तथा उसके अनुरूप आचरण करने पर है। जीवन की सही दिशा पर है।
प्रस्तुत अध्ययन के महत्त्व का एक आयाम यह भी है कि मुनि जयघोष ने ब्राह्मणों से ब्राह्मणों की ही भाषा में संवाद किया है। ब्राहमण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र
और यज्ञ इस भाषा के आधार-शब्द हैं। इन्हीं शब्दों के प्रयोग से प्रचलित अर्थों से भिन्न तथा सम्यक् अर्थ व्यक्त किये गये हैं। यह पुराने शब्दों में नये व सच्चे अर्थों की सृष्टि है। प्रकारान्तर से यह पुराने मनुष्य में नये व सच्चे मनुष्य की सृष्टि भी है। पुराने समाज में नये व सच्चे समाज की सृष्टि भी है। पुराने युग में नये व सच्चे युग की सृष्टि भी है। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन इतिहास-निर्माता अध्ययन है।
इस अध्ययन में जयघोष मुनि भगवान् महावीर के प्रतिनिधि साधु हैं। मासखमण तप के पारणे हेतु विजयघोष के यज्ञ-मण्डप में पहुँचकर वे अपमान को सम-भाव से सहते हैं। उनके लिये अपना अपमान नहीं, दूसरों का अज्ञान महत्त्वपूर्ण है। अज्ञान-अंधकार से उन्हें उबारना उनके लिये पारणे से कहीं अधिक आवश्यक है। इसीलिये अपमान का प्रत्युत्तर वे संवाद का वातावरण निर्मित कर देते हैं। ज्ञान प्रदान कर देते हैं। यह उनके करुणा-भाव की महानता है। विरोधियों के प्रति सन्त-व्यवहार की बानगी है। धर्म, ज्ञान व मुक्ति के सन्देश-वाहक होने की सार्थकता है।
इस अध्ययन का फल विजयघोष द्वारा श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर लेना तो है ही, उन पशु-पक्षियों को जीने का अधिकार मिलना भी है, जो विजयघोष द्वारा यज्ञ-कर्त्ता बने रहने की स्थिति में बली-प्रथा के निर्दोष शिकार बनते। सम्यक् ज्ञान की प्रभावना के माध्यम से जयघोष मुनि अनेक अपरिचित जीवों को सर्वश्रेष्ठ दान, अभय दान, भी प्रदान करते हैं। इस प्रकार अभय व अहिंसा-धर्म का 'जय-घोष' होता है। इस घोष के साथ-साथ जैन दर्शन का मूल आधार स्पष्ट करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय
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अध्ययन-२५
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