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५८. “(हे महामुने!) मन (ही) दुःसाहसी, भयंकर दुष्ट अश्व है जो
चारों ओर दौड़ता रहता है। धर्म-शिक्षा के द्वारा उसे 'कन्थक' (श्रेष्ठ प्रशिक्षित घोड़े) की तरह नियंत्रित किए रहता हूँ।"
५६. (महामुनि केशीकुमार ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ट
है। आपने मेरा यह संशय (भी) दूर कर दिया है । (किन्तु एक) अन्य संशय भी मुझे है, हे गौतम! उसके विषय में (भी) मुझे
आप बताएं।” ६०. “हे गौतम! संसार में अनेक कुमार्ग हैं जिनमें प्राणी नष्ट हो जाते
हैं- अर्थात् भटक जाते हैं। (सु) मार्ग पर चलते हुए आप किस प्रकार भ्रष्ट हो भटके नहीं हैं?" |
६१. (गौतम स्वामी ने कहा-) “हे मुने! जो सन्मार्ग पर चलते हैं, और
जो उन्मार्ग पर चलते हैं, मैंने उन सब (के सुफल-दुष्फल) को जान लिया है, इसलिए मैं सन्मार्ग से भ्रष्ट हो भटका नहीं हूँ।"
६२. श्रमण केशीकुमार मुनि ने गौतम स्वामी से कहा- “आपने किस
मार्ग (सन्मार्ग व उन्मार्ग) का कथन किया है?" (तदनन्तर) यह कहने पर केशीकुमार को गौतम स्वामी ने कहा
६३. “(हे महामुने!) कुप्रवचनों (मिथ्या, एकान्तवादी मान्यताओं) के
सभी मतानुयायी- 'उन्मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाले हैं । सन्मार्ग (तो एकमात्र) जिनेन्द्र-उपदिष्ट (अनेकान्त व अहिंसा का मार्ग ही) है। और यही दया-विनयमूलक होने से, एकमात्र उत्तम मार्ग है।"
अध्ययन-२३
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